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डर को डराने से ही पंखों को आकाश मिल सकता है

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आज की इंडिपेंडेंट, एजूकेटेड और बोल्ड नारी में भी डर का बीज कहीँ न कहीं से जरूर पड़ गया है। परवरिश, आसपास के वातावरण, आत्मविश्वास के अभाव या प्रोत्साहन की कमी उसके जीवन में कोई भी नया साहस करने में रुकावट डालती है। सासह की बात तो जाने दीजिए, रूटोन के कामों में भी वे एक घेरे या कंफर्ट जोन
से बाहर नहीं निकलतीं। डर, कमजोरी, ग्रथियां और गलत धारणाएं महिलाओं के व्यक्तित्व के विकास में रुकावट डालते हैं।
गिर कर उठने, हार कर जीतने या भूल कर के सीखने के लिए अगर कोई तैयार है, तभी उसके जीवन की राह आसान बनती है और इसके लिए दूसरा कुछ नहीं हिम्मत चाहिए। एक कहानी द्वारा इस बात को समझते हैं।
दो बीज बसंत ॠतु में उगने के लिए जमीन में आसपास पड़े थे। पहले बीज ने कहा कि ‘मैं उगना चाहता है। मैं अपनी जड़ को जमीन के अंदर ले जाना चाहता हूं। इतना ही नहीं, मैं चाहता की मेरी जड़ों से तमाम अंकुर निकल कर जमीन के बाहर आएं। मेरी इच्छा है कि मेरी कोमल कलियां ध्वजा की तरह लहराएं। मैं अपने चेहरे पर तेज और अपनी पंखुड़ियों पर सुबह की नमी महसूस करना चाहता हूं।’ इससे यह बीज उग कर पेड़ बनने लगा
दूसरे बीज ने कहा कि ‘मुझे डर लग रहा है कि मैं अपनी जड़ को जमीन के अंदर नीचे ले जाऊंगा तो पता नहीं मुझे अंधेरे में क्या मिलेगा? अगर मैं अपने अंकुर को जमीन में आवरण के ऊपर ले आया तो मेरे नाजुक अंकुर को नुकसान पहंच सकता है। अगर मैं अपनी कवियों को खोलूंगा तो तमाम कीड़ेमकोड़े उसे नुकसान पहुंचाएंगे। मेरे फूलों की पंखुड़ी को कोई बच्चा तोड़ कर बिखेर देगा। इससे बेहतर तो यही है कि मैं यहीं स्थिर रहूं। इससे यह बीज उगने की राह देखता रहा।
एक दिन एक मुर्गी कुछ खाने के लिए वहां खोजते हुए आई और वहां स्थिरबैठे दाने को देखा तो उसे खा गई। कहने का मतलब यह है कि जो लोग खतरा उठाने और विकास करने से से मना करते हैं, वे जिंदगी में गच्चा ही खाते हैं।
डर के आगे जीत है। जो लोग डरते नहीं, वही खतरा उठा सकते हैं। बीज से फूल तक पहुंचने के लिए बहुत वेदना सहन करनी पड़ती है। जो सहन करता है, तपता है, कटता है या घाव की पीड़ा सहन करता है, वही आगे बढता है। सुविधाओं के गमले में बैठा स्थिर व्यक्तित्व रूपी बीज पेड़ नहीं बन सकता। फूल खिला कल सुगंध नहीं फैला सकता। कुछ पाने के लिए खतरा उठाना सीखना चाहिए। कुछ खोना सीखना पड़ेगा। हमारे आसपास ऐसी तमाम महिलाएं हैं, जो तरहतरह के डर और भ्रम पाल कर जीती हैं। किसी भी बात की शुरुआत डर से करती हैं। अगर आपको घर के बाहर निकल कर काम करना है तो आपको डबल मेहनत करनी पड़ेगी। सात के बदले पांच बजे उठना पड़ेगा।धूप में बाहर जाना पड़ेगा। धूप में जाने से स्किन ब्लैक हो जाएगी। नींद नहीं पूरी होगी तो तबीयत खराब हो सकती है, इस तरह के ख्यालों को दिमाग से निकाले बगैर काम नहीं चलेगा। ऐसी तमाम महिलाएं हैं जो अपनी इच्छा को मन में दबाए रखती हैं। बाहर घूमने जाना हो या किसी को कुछ देना हो, तो घर में किसी से कोई बात नकरती हैं। कहीं सास या पति मना न कर दे? नादाज न हो जाएं? ये सवाल उनकी जीभ सिल देते हैं। अरे मना कर देंगे तो आप अपनी बात समझाएं। परंतु मैदान में उतरे बगैर हार क्यों मान ली जाए? पति भी हर समय पत्नी को दबा कर नहीं रखते। हां, अनेक पत्नियां उनसे घबराती हों यह अलग बात है।
तमाम महिलाओं को तरहतरह के शौक होते हैं। पर उन्हें पूरा करने की उनमें हिम्मत नहीं होती। बैडमिंटन खेलना हो तो शरीर को तकलीफ देनी पड़ेगी, गिरने और चोट लगने का खतरा तो उठाना ही पड़ेगा। बहुत महिलाओं को देखादेखी मोटर साइकिल चलाने की इच्छा होती है, पर मोटर साइकिल चलाने में दुर्घटना का डर लगता है। आज 25-30 साल की अनेक महिलाएं स्कूटर तो क्या स्कूटी भी चलाने से डरती हैं। घर में गाड़ी हो तो भी डर के कारण सीखती नहीं हैं। महिलाओं का यह डर मात्र खुद तक ही सीमित नहीं रहता। पूरे परिवार के लिए होता है। जैसे कि बच्चे को स्केटिंग में एक दो बार चोट लग जाए तो उसक स्केटिंग बंद करा देती हैं। साइकिल से गिर जाएवतो उसे अकेला नहीं जाने देंगीं, किसी न किसी को साथ भेजेंगी। कहीँ बाहर जाना हो तो उसे अकेला नहीं जाने देंगीं। जबकि ऐसा करने से उसकि विकास रुकता है। दो-तीन रात के लिए बेटियों को बाहर जाना हो तो ऐसी तमाम मम्मियां मिल जाएंगी जी सिर पर आसमान उठा लेती हैं। जवान बेटी की चिंता करना स्वाभाविक है, पर लड़की के साथ कुछ गलत न हो, इस तरह उसे तैयार करना जरूरी नहीं है। अगर कभी उसके साथ इस तरह की बात आती है तो उससे मुकाबला करना सिखाने के बजाय उसे पिंजरे में बंद करने का क्या अर्थ है? जो महिला अधिक ही डरपोक या भीरु होगी वह मौका आने पर सही निर्णय नहीं ले पाएगी। शक के कुएं में भटकती हुई वह कभी प्रगति नहीं कर सकेगी। कल्पना चावला दुनिया में अमर हो गई, क्योंकि उसने स्पेस में जाने का खतरा उठाया। मेरीकाॅम का नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। क्योंकि उसने समाज की परंपरा तोड़ने का खतरा उठाया। लोग क्या कहेंगे यह डर उसने मन में आने नहीं दिया। आर्टिफिशियल पैरों द्वारा अरुणिमा सिन्हा एवरेस्ट पर चढ़ गई। क्योंकि उसे मौत और मुश्किलों का डर नहीं लगा। अमृता प्रीतम, महाश्वेता देवी या महादेवी वर्मा का नाम अन्य साहित्यकारों से ऊपर है, क्योंकि उन्होंने समाज के आगे आवाज़ उठाने की हिम्मत की। डरे बगैर उन्होंने अपने लेखन में शोषण और अत्याचार के खिलाफ जंग छेड़ी। जो खिला है, विकसित हुआ है, वह अन्य से अलग चमका है, क्योंकि उन्होंने सुरक्षा और सुविधाओं की लक्ष्मण रेखा लांघी है। वाहवाही के बजाय शुरुआत में लोगों के ताने सहे हैं, जिस तरह मां को बच्चे के जन्म के समय पीड़ा सहनी पड़ती है। अंत में प्रसव की पीड़ा पर मां विजय प्राप्त करती है। इस तरह विजय और पहचान की रचनात्मकता के लिए दुनिया की कठोर वास्तविकता को सहना पड़ता है।
महिलाओं के इस डर का अनुभव बहुत ही विचित्र प्रकार का होता है। वे बैंक से गहने तो निकाल कर ले आएंगी, पर दो लाख कैश निकाल कर लाना होगा तो डरेंगी। आज एख तरफ अनेक महिलाएं लाखों-करोड़ों का बिजनेस कर रही हैं, पैसे का मैनेजमेंट कर रही है, अब तो महिलाएं शेयर बाजार में भी पीछे नहीं हैं, फिर भी दूसरी ओर ऐसी अनेक महिलाएं हैं जो किसी अज्ञात डर या ग्रंथि के कारण फाइनेंशियल मैटर से दूर रहती हैं और जब कोई समस्या आ जाती है तो बेचैन हो उठती हैं।
भारतीय महिलाओं में आज पुरुषों द्वारा की जाने वाली छेड़छाड़, गंदे मजाक या रेप का भय जानेअनजाने परेशान करता है। इसके कारण महिलाएं खुद ही एक सीमा रेखा बना कर खुद को एक घेरे में कैद कर लेती हैं। वास्तव में किसी भी मामले में सवधानी या होशियार और कोई खराब स्थिति आए, उससे बाहर निकलने की तैयारी महत्वपूर्ण है। पलायनवाद नहीं, एक साॅलो टैवलर ने अपने ब्लॉग में अनुभव की एक अच्छी बात लिखी है। उसने लिखा है कि मुझे जैसलमेर में इजरायल की 22-23 साल की अकेले ट्रैवेल करती एक युवती मिली। ब्लागर ने उससे पूछा कि उसे डर नहीं लगता? उस युवती ने जवाब दिया कि ‘मैं बाहर निकलने लगी तो मेरी मम्मी ने कहा कि बेटा इस दुनिया में खराब लोग भी हैं जो मुझे भटका सकते हैं। पर उनके डर से मैं घूमना तो नहीं छोड़ सकती। इस लिए खुद को संभाल कर आगे बढूं।
कहने का मतलब यह है कि जब आप कुछ नया करती है, खतरनाक रास्ता अपनाती हैं और अपने आसपास घिरे सुरक्षा के लिए के कवच को तोड़ कर बाहर निकलती हैं तो डर को छोड़ना ही पड़ेगा। घर-परिवार, नौकरी, धंधा या ट्रेवलिंग, लर्निंग जैसी अनेक बातें आज चुनौती भरी हैं। समस्याएं है पर आज उनसे डरे बगैर हल खोजना समय की मांग है। आज की नारी को डर के आगे जीत है, यह सूत्र हमेशा याद रखना पड़ेगा।

-वीरेन्द्र बहादुर सिंह
sneha19072000singh@gmail.com

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