यूपी

इनके जज्बे के आगे कोरोना भी हारा, जंग जीतकर लौटते ही फिर लोगों का बने सहारा, जानिये कौन?

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नीरज सिसौदिया, बरेली
कोरोना काल में जहां कुछ लोग आपदा को अवसर में बदलकर कालाबाजारी का काला खेल खेल रहे हैं वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बेबसों का सहारा बन रहे हैं. आज हम आपको मिलाने जा रहे हैं यूपी के बरेली शहर की ऐसी ही दो शख्सियतों से जो लोगों की सेवा करते-करते खुद कोरोना की चपेट में आ गए. कोरोना से लगभग 14 दिनों तक जूझते रहे और अंत में उसे मात देने में कामयाब भी हुए. उनका सफर यहीं पर खत्म नहीं हुआ. कोरोना का प्रकोप भी समाजसेवा के उनके जज्बे को कम नहीं कर सका और कोरोना से जंग जीतने के बाद वह एक बार फिर जुट गए समाजसेवा के कार्यों में. इनमें एक पंजाबी है तो दूसरा मुसलमान मगर सबसे पहले ये दोनों एक इंसान हैं. हम बात कर रहे हैं वरिष्ठ समाजसेवी अश्विनी ओबरॉय और ओमेगा क्लासेस के डायरेक्टर एवं युवा समाजसेवी मोहम्मद कलीमुद्दीन की.
अश्विनी ओबरॉय मॉडल टाउन में रहते हैं और कुछ समय पहले वह और उनके परिवार के कई लोग कोरोना की चपेट में आ गए थे. कोरोना की चपेट में आने के बावजूद अश्विनी ओबरॉय के पास अगर मदद के लिए कोई फोन आता था तो वह अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर मदद करवाते रहे. अगर किसी को प्लाज्मा की आवश्यकता होती तो वॉट्सएप ग्रुपों से लेकर फेसबुक तक अश्विनी ओबरॉय संदेश प्रसारित करने में जुट जाते थे और तब तक प्रयास जारी रखते थे जब तक जरूरतमंद की जरूरत पूरी नहीं हो जाती. कोरोना की चपेट में आने के बाद जब वह ठीक हुए तो उन्होंने कोरोना संक्रमित परिवारों की मदद के लिए नई पहल की. उन्होंने ‘सबकी रसोई’ नाम से एक पहल की जिसके तहत कोरोना संक्रमितों और उनके परिवारों के लिए महज 20 रुपये में पौष्टिक भोजन की होम डिलीवरी सेवा शुरू की. इस सेवा के जरिये न सिर्फ वह लोगों को भोजन मुहैया करा रहे हैं बल्कि लोगों को रोजगार देने का माध्यम भी बन रहे हैं. समाजसेवी संस्थाओं को वह पहले से ही सहयोग करते आ रहे हैं. अश्विनी ओबरॉय जैसे समाजसेवियों की वजह से ही मानवता आज भी जीवित है.


इसी तरह मेडिकल की कोचिंग के लिए प्रसिद्ध ओमेगा क्लासेस के डायरेक्टर मोहम्मद कलीमुद्दीन भी मानवता की मिसाल पेश कर रहे हैं. मो. कलीमुद्दीन वैसे तो गरीब बच्चों को नि:शुल्क कोचिंग देने के लिए जाने जाते हैं. कोरोना की पहली लहर में उन्होंने लोगों की बढ़-चढ़ कर सेवा की थी. जब इस साल कोरोना की दूसरी लहर का प्रकोप शुरू हुआ तो मो. कलीमुद्दीन फिर से बेबसों की मदद को आगे आए. वह लोगों को राशन आदि सामान के साथ ही जरूरी दवाएं तक मुहैया कराने में जुटे थे. इसी बीच कोरोना की चपेट में आ गए. लगभग 15 दिन तक कोरोना से जूझने के बाद जब वह लौटे तो उनके मन में सेवा का जज्बा और बढ़ चुका था. कोरोना मरीजों को हो रही असुविधा और ऑक्सीजन की कालाबाजारी जैसी खबरें जब उन तक पहुंचीं तो उन्होंने लोगों को जरूरी दवाएं और ऑक्सीजन उपलब्ध कराने का संकल्प लिया.

इसी बीच मॉडल टाउन में सिख समाज की ओर से कोरोना का लंगर शुरू किया गया था. कलीमुद्दीन को जब इसका पता चला तो वो इस लंगर को जारी रखने में बिना यह सोचे सहयोग करने पहुंच गए कि यह लंगर सिख समाज की ओर से शुरू किया गया है. उन्होंने सिर्फ सिखों का सेवा भाव और लंगर का उद्देश्य समझा. इन दिनों वह स्लम बस्तियों में जाकर गरीब लोगों की मदद कर रहे हैं. राशन और दवाओं के अभाव में किसी गरीब को मौत के आगोश में न समाना पड़े, यही उनकी कोशिश रहती है. ये वे कोरोना वॉरियर्स हैं जो कोरोना से जंग के साथ ही दिलों को भी जीत रहे हैं. साथ ही कथित समाजसेवियों के लिए मानवता की मिसाल भी पेश कर रहे हैं.

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