आशा की एक भी किरन जहाँ, न देख पाती हूँ मैं
जानती हूँ लोगों की माफी भी निकाल न सकेगी मुझे ,
एक एक सीढी बनी है मेरे अपराध बोध से।
अंधेरों से घिरी देखती हूँ अपने अंत को करीब से,
सोचती हूँ नहीं जीत सकती मैं अपने नसीब से।
पर नहीं गलत हूँ मैं, हारना सीखा नहीं कभी हालातों से,
खडा पाया खुद को तभी मज़बूत इरादों से,
चढने लगी एक एक सीढ़ी भूल कर अतीत की परछाईयां
छोड़ आई पीछे मै सब अपनी तनहाइयाँ ।
हँसती हूँ अब खिलखिलाती भी हूँ,
सूरज की किरनों और चाँद की चांदनी को सहलाती भी हूँ ।
फूलों की खुशबू से महकती है दुनिया
हवाओं के गीतों से खुद को बहलाती भी हूँ ।
बारिश में भीगती,पेड़ों पर झूलती,चाँदनी में खेलती ,तारों से बातें करती,खुद को फिर से पा लिया है मैंने
– प्रज्ञा, (12 वर्ष), कान्वेंट ऑफ जीसस एंड मैरी, नई दिल्ली