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बेबसी के अंधेरों को उम्मीदों के चिरागों से रोशन कर रही ज्योति, पढ़ें बीएससी की छात्रा के संघर्ष और समर्पण की अनसुनी दास्तान…

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नीरज सिसौदिया, बरेली

“कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिए
कहां चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए
न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए”
कवि दुष्यंत की ये पंक्तियां उस मंजर को बयां करने के लिए काफी है जो बरेली शहर के साथ लगते गांव करेली के एक टूटे-फूटे बिना प्लास्टर के कमरे में देखने को मिला. सरकारी दावों की हकीकत बयां करतीं ये तस्वीरें समाज के तथाकथित रहनुमाओं को आईना दिखा रही हैं. बेबसी के अंधेरे उन्हें आगे बढ़ने नहीं देते बस एक उम्मीद का उजाला है जो बेबसी की राहों को रोशन कर रहा है. उम्मीदों के इस सफ़र का आगाज लगभग तीन साल पहले करेली से चंद किलोमीटर दूर पड़ते गांव खजुवाई से एक 12 वीं पास लड़की लेकर आई थी. सिंचाई विभाग के कर्मचारी की बेटी व पूर्व स्वयंसेविका छात्रा राजकीय बालिका इंटर कालेज
ज्योति ठाकुर वैसे तो यहां अपनी तकदीर संवारने और बीएससी की पढ़ाई करने आई थी लेकिन मासूमों की बेबसी ने उसे सपनों की अलग ही मंजिल के सफर पर चलने को मजबूर कर दिया. जिस उम्र में लड़कियां सपनों के राजकुमार के ख्वाब संजोया करती हैं उस उम्र को ज्योति ने मासूम बच्चों की तकदीर संवारने में समर्पित कर दिया.

ज्योति बताती हैं, “मैं जब यहां आई तो किराये पर कमरा लेकर पढ़ाई करती थी. उस दौरान मेरी नजर उन मासूमों पर पड़ी जिन्हें न तो कोई घर पर पढ़ाने वाला था और न ही उनके परिवार के पास इतने पैसे थे कि बच्चों को ट्यूशन पढ़ा सकें. उसी दिन मैंने ठाना कि इन मासूमों का भविष्य मैं इस तरह से बर्बाद नहीं होने दूंगी. बस उसी दिन से मैंने केंद्र की शुरुआत की और किराये के जर्जर कमरे में ही बच्चों को पढ़ाने लगी.’

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पंजाब में विद्या भारती की ओर से बाल संस्कार केंद्र चलाए जाते हैं जहां ऐसे गरीब बच्चों को शाम के वक्त पढ़ाया जाता है लेकिन उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में विद्या भारती इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं कर सकी है. ज्योति ठाकुर विद्या भारती या किसी अन्य संगठन से तो ताल्लुक़ नहीं रखती हैं लेकिन जिस मुहिम को पंजाब में विद्या भारती जैसा संगठन आगे बढ़ा रहा है उस मुहिम को बरेली जिले में ज्योति सिंह अकेले अपने दम पर आगे बढ़ा रही हैं.

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ज्योति बताती हैं, ‘लगभग तीन साल पहले जब मैंने बच्चों को पढ़ाना शुरू किया था तो सिर्फ चार बच्चे मुझसे पढ़ने आते थे. जैसे-जैसे लोगों को पता चलता गया वैसे-वैसे बच्चों की तादाद बढ़ती गई. आज मैं तीन केंद्र संचालित कर रही हूं. इनमें दो केंद्र करेली में हैं तो एक जहांगीर गांव में. आज लगभग दो सौ बच्चे हमारे तीन केंद्रों में शिक्षा ले रहे हैं.’

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ज्योति ठाकुर न सिर्फ बच्चों को शिक्षित कर रही हैं बल्कि उन्हें कॉपी किताबें और पेन-पेंसिल आदि भी मुहैया कराती हैं. इसके लिए वह जिले के समाजसेवियों से मदद लेती हैं. ज्योति कुछ बच्चों के सरकारी स्कूलों में एडमिशन भी करा चुकी हैं. वह खुद बीएससी द्वितीय वर्ष की छात्रा हैं और एक निजी स्कूल में पढ़ाकर अपना भरण पोषण करती हैं. ऐसा नहीं है कि ज्योति ने कभी स्थानीय जनप्रतिनिधियों से मदद की गुहार नहीं लगाई लेकिन जनप्रतिनिधियों ने उनकी तरफ मदद का हाथ नहीं बढ़ाया.

ज्योति बताती हैं, ‘गांव के बच्चे पढ़-लिख कर एक अच्छी जिंदगी बसर कर सकें बस यही प्रयास करती हूं. स्थानीय जनप्रतिनिधियों ने आज तक मदद का हाथ नहीं बढ़ाया. न तो कोई विधायक यहां आया और न ही सांसद ने यहां कि सुध ली. प्रधान ने भी कभी ध्यान नहीं दिया. मैं बस इतना चाहती हूं कि सांसद, विधायक यहां आएं और देखें कि यहां के बच्चे किन हालातों में पढ़ रहे हैं. इन बेबस बच्चों की मदद करें ताकि इनका भविष्य भी बेहतर बन सके. अपने माता-पिता की तरह ये बच्चे आगे चलकर मजदूरी करने को मजबूर न हों. सरकारी योजनाओं का लाभ इन बच्चों को भी मिल सके. सरकार ऐसी व्यवस्था करे कि मुझे किराये के जर्जर कमरे में इन बच्चों को पढ़ाने पर मजबूर न होना पड़े.
बहरहाल, ज्योति ठाकुर अपने हौसले से उम्मीदों के चिरागों को रोशन कर रही है.

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