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फरीदपुर विधानसभा सीट : ये हैं सपा के दावेदार, पढ़ें क्या है सपा के दावेदारों का सियासी वजूद, कौन कितना है दमदार?

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नीरज सिसौदिया, बरेली
फरीदपुर विधानसभा सीट (एससी आरक्षित) का सियासी मिजाज बरेली जिले की अन्य विधानसभा सीटों से थोड़ा हटकर है. यहां कोई भी सियासी दल लगातार दो बार जीत हासिल नहीं कर सका है. अब तक इस सीट पर चार बार समाजवादी पार्टी का कब्जा रहा है. जिनमें तीन बार डा. सियाराम सागर ने सपा को जीत दिलाई जबकि एक बार नंदराम सपा से विधानसभा पहुंचे. हालांकि डा. सियाराम सागर इस सीट से कुल पांच बार विधायक रहे लेकिन पहली बार वर्ष 1977 में वह जनता पार्टी से विधानसभा पहुंचे थे और 1989 में निर्दलीय जीत हासिल कर विधायक बने थे. सपा के कब्जे वाली इस सीट पर पिछली बार भाजपा की लहर में श्याम बिहारी ने कब्जा जमा लिया. अबकी बार फिर सबकी निगाहें समाजवादी पार्टी पर हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह डा. सियाराम सागर का निधन है. डा. सियाराम सागर के निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत संभालने के लिए उनके परिवार में ही खींचतान हो रही है. उनके बेटे आपस में ही उलझ कर रह गए हैं. उन्हीं के परिवार के चंद्रसेन सागर भी परिवार से अलग सियासी वजूद की तलाश में जुटे हुए हैं. एक पहलू यह भी है कि डा. सियाराम सागर के परिवार में फिलहाल कोई भी ऐसा चेहरा नजर नहीं आ रहा जो सियाराम सागर की सियासत की विरासत को आगे बढ़ाने में सक्षम हो. उनके दोनों ही पुत्रों का अपना अलग कोई सियासी वजूद नहीं है. पारिवारिक कलह ने रही सही उम्मीद पर भी पानी फेर दिया है.
एक अन्य दावेदार बसपा का दामन छोड़कर सपा में शामिल हुए विजयपाल सिंह हैं. विजयपाल दो बार से लगातार चुनाव हारते आ रहे हैं. अब तक वह बसपा से चुनाव लड़ते थे. पिछले चुनाव में वह इतने वोट भी हासिल नहीं कर सके थे जितना उनके समाज का वोट है. विजयपाल को जब महसूस हुआ कि बसपा में उनकी दाल नहीं गलने वाली तो वह साइकिल पर सवार हो गए. अब सपा से टिकट का दावा तो कर रहे हैं लेकिन बसपा सरकार में यादवों के खिलाफ दर्ज कराए गए मुकदमे विजयपाल के गले की फांस बन गए हैं. फरीदपुर का यादव समाज उनके खिलाफ है. इसके अलावा विजयपाल की जुबान भी उनके सियासी पतन में अहम किरदार निभा रही है.

विजयपाल सिंह

हाल ही में त्रि स्तरीय पंचायत चुनाव के दौरान उन्होंने यह कहकर पुलिस वालों से भी दुश्मनी मोल ले ली कि जब हमारी बसपा की सरकार थी तो पुलिस वालों को पेशाब पिलाया करते थे. अब पुलिस वालों को पेशाब पिलाने वाले नेता को अखिलेश यादव टिकट देंगे तो उनकी छवि पूरे प्रदेश में किस स्तर पर जा पहुंचेगी इसका अंदाजा खुद ब खुद लगाया जा सकता है. रही सही कसर बसपा से आए दिग्गज और साफ सुथरी छवि वाले नेता ब्रह्मस्वरूप सागर ने पूरी कर दी. ब्रह्मस्वरूप सागर अब तक बहुजन समाजवादी पार्टी में किंग मेकर की भूमिका में थे. बिना ब्रह्मस्वरूप सागर की सहमति के बहनजी बरेली मंडल के टिकट का बंटवारा नहीं करती थीं. बाद में मुरादाबाद मंडल की भी जिम्मेदारी ब्रह्म स्वरूप सागर को दे दी गई. अब ब्रह्मस्वरूप सागर भी समाजवादी पार्टी में शामिल हो चुके हैं. वह पुराने समाजवादी रहे हैं. एक तरह से उनकी घर वापसी हुई है. अब तक विधानसभा चुनाव लड़वाने वाले ब्रह्म स्वरूप सागर अब खुद भी चुनाव लड़ना चाहते हैं. समाजवादी पार्टी में उनकी एंट्री से विजयपाल का राजनीतिक ग्राफ और नीचे चला गया है या यूं कहें कि विजयपाल के लिए ब्रह्म स्वरूप सागर की एंट्री मुसीबत का सबब बन गई है.

ब्रह्म स्वरूप सागर

अब तक सपा के लिए मजबूरी में जरूरी माने जा रहे विजयपाल की जगह अब ब्रह्म स्वरूप सागर ने ले ली है. वह लोकसभा चुनाव भी लड़ चुके हैं. बड़ा सियासी कद और साफ-सुथरी छवि के ब्रह्म स्वरूप सागर सभी दावेदारों की मुश्किलें बढ़ाते नजर आ रहे हैं.
समाजवादी पार्टी में आस्था जताने वालों में इस बार आबकारी अधिकारी की पत्नी शालिनी सिंह भी हैं. शालिनी सिंह पिछली बार निर्दलीय चुनाव लड़ी थीं और 2000 वोट भी हासिल नहीं कर सकी थीं. उनके साथ उनकी अपनी भाभी ही मुसीबत बनी रहती हैं.

शालिनी सिंह

शालिनी के खिलाफ उनकी भाभी भी चुनाव लड़ती रही हैं. ऐसे में अपने रिश्तेदारों के भी पूरे वोट शालिनी हासिल नहीं कर पातीं. ऐसे में ब्रह्म स्वरूप सागर और विजयपाल सिंह के सामने शालिनी सिंह कितनी तवज्जों पाती हैं इसका अंदाजा खुद ब खुद लगाया जा सकता है.
एक नेता वाल्मीकि समाज की भी आवाज बुलंद कर रहा है. उसका नाम डालचंद वाल्मीकि है. डालचंद वाल्मीकि सपा के बरेली महानगर सचिव हैं और बरेली से ही पार्षद हैं.

डालचंद वाल्मीकि

उनका तर्क है कि वाल्मीकि समाज को पार्टी ने अब तक मौका नहीं दिया है. इसलिए अबकी बार उन्हें टिकट मिलना चाहिए. हालांकि उनके साथ ही वाल्मीकि समाज के एक और नेता अरविंद आनंद भी टिकट की कतार में खड़े नजर आ रहे हैं. अरविंद आनंद जिला सचिव हैं और अनुसूचित जाति सभा के जिला अध्यक्ष भी रहे हैं. उनके पिता भी समाजवादी पार्टी में सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं.

इनके अलावा कुछ और दावेदार भी हैं जो टिकट का दावा कर रहे हैं लेकिन मुकाबले में कहीं नजर नहीं आते. वे सियासी मेढक की तरह चुनावी बरसात में बिलों से बाहर आकर टरटराने जरूर लगे हैं. कुछ दावेदार ऐसे भी हैं जो दावेदारी तो सपा से कर रहे हैं लेकिन हाजिरी भाजपा और बसपा नेताओं के दरबार में भी लगा रहे हैं. बहरहाल, टिकट का फैसला तो पार्टी हाईकमान को करना है लेकिन टिकट किसे मिलेगा यह देखना दिलचस्प होगा.

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