नीरज सिसौदिया, बरेली
विधानसभा चुनाव में बरेली जिले में समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन भले ही 2017 के मुकाबले बेहतर रहा हो मगर इसे संतोषजनक बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। इस चुनाव ने यह साबित कर दिया है कि पार्टी का जनाधार यहां खिसकता जा रहा है और बरेली जिले की नौ विधानसभा सीटों पर अगर पार्टी को मजबूती देनी है तो मुस्लिमों और कुर्मी समाज को जोड़कर रखना होगा। दरअसल, पार्टी ने जो दो विधानसभा सीटें जीती हैं उनमें मुस्लिम ही विधायक बन सके हैं। आगामी लोकसभा चुनाव के लिहाज से देखें तो बरेली जिले की नौ विधानसभा सीटों पर सबसे लगभग आठ लाख से अधिक मुस्लिम वोटर हैं। पार्टी के पास मुस्लिम नेताओं की कोई कमी नहीं है। पूर्व महानगर अध्यक्ष शमीम खां सुल्तानी, अता उर रहमान, सुल्तान बेग, इंजीनियर अनीस अहमद खां जैसे कई नेता हैं जो इस पद के योग्य भी हैं और पार्टी के पक्ष में मुस्लिम समाज को एकजुट करने की क्षमता भी रखते हैं। विधानसभा चुनाव के बाद जिस तरह से मुस्लिम वोटर सपा का विकल्प तलाशने में लगा है उसने कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों को सपा के सामने लाकर खड़ा कर दिया है। समाजवादी पार्टी को इस बिखराव को रोकना होगा। क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ तो मुस्लिम फिर बिखर जाएगा और भाजपा को चुनौती देना नामुमकिन हो जाएगा। ऐसे में पार्टी अगर जिले में एक साफ – सुथरी छवि के मुस्लिम नेता को कमान सौंपती है तो मुस्लिम मतदाताओं के संभावित बिखराव को रोकने में पार्टी कामयाब हो सकती है।
चूंकि अब यादवों का बिखराव हो चुका है, इसलिए यादव जिला अध्यक्ष पार्टी के लिए फायदेमंद होने की जगह नुकसानदायक हो सकता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि वीरपाल सिंह यादव के प्रसपा में जाने और महिपाल सिंह यादव को किनारे किए जाने के बाद बरेली जिले के यादवों का भी सपा से मोहभंग हो गया और वे भाजपाई खेमे में चले गए। जो सपा के साथ रहे भी वह भी निष्क्रिय ही रहे। यादवों के मुकाबले कुर्मी वोट बैंक पर ध्यान दिया जाए तो सपा को फायदा हो सकता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि संतोष गंगवार से मंत्री पद वापस लेने के बाद कुर्मी समाज में भाजपा के खिलाफ नाराजगी है। ऐसे में कुर्मी समाज को सपा में जोड़ने का यह सही वक्त है। संतोष गंगवार इस बार लोकसभा चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। इसकी सबसे बड़ी वजह यह बताई जा रही है कि वह भाजपा के अंडर 75 के फॉर्मूले में फिट नहीं बैठ रहे। अगर संतोष गंगवार चुनाव नहीं लड़ेंगे तो सपा को फायदा हो सकता है। क्योंकि संतोष गंगवार जैसा कद्दावर कुर्मी नेता फिलहाल बरेली जिले में भाजपा के पास कोई और नहीं है। ऐसे में सिर्फ कुर्मी उम्मीदवार खड़ा कर देने मात्र से कुर्मी वोट बैंक को न तो भाजपा साध सकती है और न ही समाजवादी पार्टी। समाजवादी पार्टी को अगर कुर्मी वोट चाहिए तो उसे अभी से कुर्मी समाज के बीच काम करना होगा। जिले के कुर्मी समाज को एकजुट करने के लिए जिला अध्यक्ष से बेहतर शायद ही कोई पद हो क्योंकि जिला अध्यक्ष जिले में पार्टी का चेहरा होता है। सपा के पास कुर्मी समाज के बड़े चेहरे के रूप में भगवत सरन गंगवार तो हैं लेकिन लगातार दो चुनाव में मिली हार और बढ़ती उम्र उनके आड़े आ सकती है। हालांकि, और कोई बड़ा एवं प्रभावी कुर्मी चेहरा फिलहाल कोई नजर नहीं आता। हां, पार्टी युवा चेहरे पर दांव खेलना चाहे तो कुछ चेहरे कारगर साबित हो सकते हैं।
बहरहाल, राजनीतिक जानकारों का मानना है कि मुस्लिम और कुर्मी जिला अध्यक्ष ही पार्टी के लिए फायदेमंद हो सकता है।

कुर्मी या मुस्लिम जिलाध्यक्ष ही हो सकता है सपा के लिए फायदेमंद, जानिये क्यों?
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