नीरज सिसौदिया, नई दिल्ली
2019 के लोकसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है| कर्नाटक की सियासी उठापटक ने राजनीतिक हवाओं का रुख मोड़ दिया है| मरणासन्न कांग्रेस में नई जान फूंक दी है| या यूं कहें कि कांग्रेस ही नहीं बल्कि पूरे विपक्ष को जैसे एक नई ऊर्जा मिल गई है| विपक्षियों की आवाज में अब दम नजर आने लगा है| कर्नाटक की सियासी घमासान ने विपक्षी दलों के उन कार्यकर्ताओं में भी जोश भर दिया है जो लगभग ठंडे पड़ चुके थे| हालांकि, कांग्रेस जिसे अपनी जीत मानकर ढिंढोरा पीटने में लगी हुई है वास्तव में वह कांग्रेस की जीत नहीं बल्कि मजबूरी है|
दरअसल, पिछले 4 वर्षों के दौरान देशभर के जिन राज्यों में भी विधानसभा चुनाव हुए वहां सिर्फ पंजाब को छोड़कर कांग्रेस को हर जगह मुंह की खानी पड़ी| बिहार में महागठबंधन की सरकार तो बनी लेकिन बाजी पलट कर एक बार फिर भाजपा के पाले में आ गई| प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा हकीकत में बदलने जा रहा था| कर्नाटक में भले ही भाजपा सरकार नहीं बना सकी हो लेकिन जनादेश भाजपा के नाम ही रहा| अगर कांग्रेस विधानसभा चुनाव से पहले जनता दल एस के साथ गठबंधन करती और फिर दोनों का गठबंधन इतनी सीटें हासिल कर पाता तो निश्चित तौर पर इसे राहुल गांधी की जीत कहा जा सकता था लेकिन यह गठबंधन विधानसभा चुनाव के नतीजे निकलने के बाद कांग्रेस ने मजबूरी में किया| इसलिए इस गठबंधन की जीत को भाजपा की हार करार नहीं दिया जा सकता लेकिन इस उठापटक ने यह साबित कर दिया है की चीज राहुल गांधी को भारतीय जनता पार्टी के नेता ‘पप्पू’ जैसी संज्ञा से संबोधित कर रहे थे वह राहुल गांधी अब ‘पप्पू’ नहीं रहे| गुजरात में भले ही कांग्रेस सत्ता हासिल ना कर सकी हो लेकिन उसने अपनी सीटों में बढ़ोतरी कर यह साबित कर दिया है कि राहुल गांधी की नीति कुछ तो असर कर रही है|
एक और बात गौर करने वाली यह है कि जब तक कांग्रेस में गांधी परिवार का वर्चस्व रहेगा तब तक कांग्रेस को किसी चेहरे की तलाश नहीं| भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के विरोधी दल भारत के पिछड़ेपन के लिए भले ही कांग्रेस के 60 साल के साम्राज्य को दोषी करार देते हों लेकिन जनता के दिलों में गांधी परिवार के लिए अब भी सम्मान बरकरार है| देश का एक खास तबका ऐसा है जो गांधी के नाम पर अब भी आंख मूंद कर वोट डालता है| यही वजह है कि कांग्रेस मैं अब तक गैर गांधी बिरादरी से ताल्लुक रखने वाला कोई भी नेता सर्वोपरि नहीं बन सका|
याद कीजिए उस दौर को जब राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी और उनकी मौत के बाद कांग्रेस मरणासन्न स्थिति में पहुंच चुकी थी| राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी सार्वजनिक तौर पर यह ऐलान कर चुकी थी कि वह कभी राजनीति में नहीं आएंगी और ना ही अपने परिवार के किसी सदस्य को आने देंगी| इसके बावजूद कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का एकदल सोनिया गांधी के पास गया और उन्हें राजनीति में आने के लिए मजबूर किया| ना चाहते हुए भी सोनिया गांधी ने हामी भर दी और नतीजा सबके सामने था| कांग्रेस फिर सत्ता में आई| नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने, देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने,इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने और मनमोहन सिंह तो 10 साल तक प्रधानमंत्री रहे|
सत्ता के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी तो होती ही है| 2014 में यह एंटी इनकंबेंसी कांग्रेस के खिलाफ थी| नतीजतन नरेंद्र मोदी लहर पर सवार होकर चुनावी दरिया पार कर गए| राज्यों में चाहे किसी की भी सरकार हो, अगर सच केंद्र की सत्ता के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी का माहौल है तो फिर राज्य सरकारें लोकसभा चुनाव में कोई खास असर नहीं डालतीं| यह बात वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में साबित हो चुकी है| उस वक्त जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी वहां भी कांग्रेस सीटें हासिल नहीं कर पाई| उत्तराखंड समेत कुछ राज्य तो ऐसे थे जहां कांग्रेस सत्ता में होने के बावजूद खाता भी नहीं खोल पाई थी| भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी यह समझना होगा कि केंद्र सरकार के खिलाफ जनता में विभिन्न मुद्दों को लेकर एंटी इनकंबेंसी का माहौल धीरे-धीरे बढ़ने लगा है| विकास के वादों और दावों के साथ 4 साल पहले नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री तो बन गए थे लेकिन उन वादों पर उम्मीद के मुताबिक अमल नहीं हो सका| उस पर जीएसटी और नोटबंदी जैसे फैसलों ने आम जनता को काफी प्रभावित किया है| सबसे बड़ा महंगाई और बेरोजगारी का दानव आज भी मुंह बाए खड़ा है| 4 साल पहले कांग्रेस सरकार ने क्या किया वह अब जनता के लिए कल की बात हो चुकी है| भारतीय वोटर वर्तमान में जीते हैं और वर्तमान को देख कर ही फैसले लेते हैं| यही वजह है कि भारत के अधिकांश राज्यों में हर 5 साल में सत्ता परिवर्तन होता है और एक के बाद एक दो ही पार्टियों का राज चलता आ रहा है|
हाल ही में राहुल गांधी ने एक पत्रकार द्वारा पूछे गए सवाल के जवाब में कहा था कि 2019 में अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो वह प्रधानमंत्री बन सकते हैं| राहुल का यह बयान सोशल मीडिया पर इतना वायरल हुआ कि देश के कोने-कोने तक पहुंच चुका है| इतना ही नहीं गली मोहल्ले की बैठकों में अब लोग राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में जरूर देखने लगे हैं| वहीं राहुल गांधी भी अपनी मजबूत रणनीति बनाने में जुटे हुए हैं| वह सत्ता के लिए किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार हैं| इसका संदेश उन्होंने कर्नाटक मैं जनता दल एस को सरकार बनाने का न्योता दे कर दे दिया है| कर्नाटक में जनता दल एस को यूंही सरकार बनाने का न्योता नहीं दिया गया बल्कि इसके पीछे कांग्रेस की एक सोची समझी रणनीति है| कुमार स्वामी को मुख्यमंत्री पद सौंप कर कांग्रेस ने विभिन्न विपक्षी दलों को अपने पाले में करने का अमोघ अस्त्र चला दिया है| कांग्रेस का यही अमोघ अस्त्र उसके लिए संजीवनी साबित होगा| हवा का रुख बदलने लगा है| मोदी और शाह की राह में राहुल गांधी “राहु” बनकर खड़े हो गए हैं| पिछली बार जिस मीडिया ने नरेंद्र मोदी को हीरो बनाया था अब उसी मीडिया को शस्त्र के रुप में इस्तेमाल करने की कला विपक्षी दलों ने भी सीख ली है| ऐसे में 2019 में लोकसभा का चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा यह कहना फिलहाल मुश्किल है लेकिन एक बात तय है कि वर्ष 2014 की तरह इस बार मुकाबला एकतरफा बिल्कुल नहीं होगा|
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