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विपक्षी एका पर टिका है कांग्रेस के सपनों का महल

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नीरज सिसौदिया, नई दिल्ली
लोकसभा उपचुनाव की सियासी उठापटक में भारतीय जनता पार्टी चारों खाने चित नजर आ रही है| विपक्षी दल इस जीत को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे| वहीं, भारतीय जनता पार्टी भी नए सिरे से रणनीति बनाने की तैयारी कर रही है| भाजपा के समक्ष वर्तमान में दो एवं चुनौतियां हैं| पहली चुनौती यूपी में खिसकती सियासी जमीन को बचाने की है तो दूसरी क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस के गठबंधन को रोकने की|
इतिहास गवाह है कि दिल्ली का सफर हमेशा यूपी के रास्ते ही तय होता है| यहां की 80 लोकसभा सीटें ही सरकारें बनाती और बिगड़ती रही हैं| विधानसभा चुनाव में तो भाजपा ने यहां परचम लहरा दिया और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बन गए| पार्टी की स्थिति यहां काफी मजबूत है| इसे विरोधी भी जानते हैं| कांग्रेस यहां अंतिम सांसें गिन रही है| यही वजह है कि भाजपा के खिलाफ कभी धुर विरोधी रहे मायावती और मुलायम सिंह यादव भी अब एक हो गए हैं| हालांकि, यह एकता कितने दिन तक चलेगी यह कहना फिलहाल मुश्किल है| सियासी जानकारों की मानें तो अगर बसपा सपा कांग्रेस व यूपी के अन्य क्षेत्रीय दलों का कांग्रेस के साथ महागठबंधन हो जाता है तो यह महागठबंधन के लिए ही सबसे अधिक नुकसानदायक होगा| कारण यह है कि सीटों को लेकर सभी दलों में पेंच फंसना तय है| क्योंकि यहां ना तो समाजवादी पार्टी सत्ता में है और ना ही बहुजन समाज पार्टी, इसलिए लोकसभा चुनाव में सीटों को लेकर दोनों में से कोई भी समझौता करने को तैयार नहीं होने वाला| मायावती तो अभी से यह कहने लगी हैं कि अगर पर्याप्त सीटें नहीं मिली तो वह महागठबंधन का हिस्सा नहीं रहेंगी| सियासी चर्चाओं की मानें तो मायावती 40 सीटों पर दावा ठोक रही हैं| कुछ सीटों पर कांग्रेस भी दावा ठोकेगी और सपा भी बसपा से पीछे रहने वालों में से नहीं है| साथ ही राष्ट्रीय लोकदल जैसी क्षेत्रीय पार्टियां भी एक 2 सीटों पर तो दावा जताएंगी ही| टिकट की टिकटिक कुछ सूरमाओं को भी नाराज निश्चित तौर पर करेगी| ऐसे में महागठबंधन के सियासी समीकरण पूरी तरह से लड़खड़ा जाएंगे| नाराज सियासतदान यादव भाजपा के खेमे में जाएंगे या फिर आजाद उतरकर अपने ही दलों को चुनौती देंगे| ऐसे में फायदा भारतीय जनता पार्टी को होगा|
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी किसी भी पाले में जा सकती हैं| यूपीए से ममता की नाराजगी किसी से छिपी नहीं है तो भाजपा से भी तालियां कम नहीं हैं| बिहार में महागठबंधन टिक सकता है लेकिन वहां पर अगर जदयू-भाजपा मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो महागठबंधन की मुश्किलें बढ़ सकती हैं|
बात अगर कर्नाटक की करें तो नतीजे सबके सामने हैं| यहां अगर विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस और जनता दल एस का गठबंधन हो जाता तो शायद इस गठबंधन की सरकार बनना मुश्किल होता| सबसे अधिक सीटें हासिल कर भारतीय जनता पार्टी ने यहां अपना झंडा तो लहरा ही दिया है|
मध्यप्रदेश और राजस्थान में अभी विधानसभा चुनाव का इंतजार है| विधानसभा के चुनावी नतीजे काफी हद तक स्थिति साफ करेंगे| आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू पहले ही कांग्रेस को दरकिनार कर तीसरा मोर्चा बनाने की अपील कर चुके हैं जिसका तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी समर्थन किया था| महाराष्ट्र में शिवसेना भले ही भाजपा पर शब्दों के तीर चलाती रहे लेकिन अंततः उसका भगवा ब्रिगेड की झोली में गिरना तय है|
ऐसे में कांग्रेस और उसके साथी विपक्षी दल भले ही उपचुनाव की जीत को 2019 की जीत का संकेत बताते हुए इसे मीडिया में जमकर भुनाने की कोशिश करें लेकिन जमीनी हकीकत इसके इतर ही कहानी बयां करती है| कांग्रेस के पैरों तले जमीन खिसक चुकी है और उसके साथी विपक्षी दलों की सियासी जमीन अभी इतनी मजबूत नहीं है कि वह अपने दम पर सत्ता का सफर तय कर सकें| इसलिए 2019 में महागठबंधन वर्तमान भाजपा सरकार को उखाड़ फेंकने में कामयाब होगा या नहीं यह कहना फिलहाल मुश्किल है| इतिहास भी गवाह है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में उपचुनाव तो हारे हैं मगर आम चुनाव में बड़ी जीत हासिल की है| ऐसे में कांग्रेस और विपक्षी दलों को चाहिए कि वह हवाई किले बनाने की बजाए एक ठोस रणनीति पर काम करें ताकि आने वाले लोकसभा चुनाव के परिणाम उनके पक्ष में आ सकें|

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