झारखण्ड

अब पंडितों से अंतिम संस्कार नहीं करायेंगे झारखंड के इस विशेष समाज के लोग, जानिये क्यों?

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बोकारो थर्मल। रामचंद्र कुमार अंजाना

‘इतिहास खुद को दोहराता है’, इस कहावत को आज झारखंड का एक आदिवासी समाज चरितार्थ कर रहा है. इस समाज ने अब अपनी प्राचीन परंपराओं और रीति रिवाजों को दोबारा दैनिक जीवन और कर्मकांडों में लागू करने का निर्णय लेते हुए श्राद्ध कर्म ब्राह्मण से नहीं कराने का फैसला किया है. अब यह समाज अपनी प्राचीन परंपराओं को अपनाते हुए मरने वाले व्यक्ति के भांजे से ही श्राद्ध कर्म करवाएगा जैसा कि प्राचीन समय में इस समाज में किया जाता था.

नावाडीह प्रखंड का आदिवासी कुडमि समाज में दूसरे धर्म में समाहित हो गया था लेकिन अब के युवा पीढ़ी धीरे धीरे अपने समाज के पुराने रीति-रिवाज व सभ्यता, संस्कृति में वापस आ रहा है।पिलपिलो निवासी व पारा शिक्षक केदार महतो समाज के लिए मिशाल कायम कर रहे हैं। केदार महतो ने कहा कि उनके भाई तारकेश्वर महतो की मौत 20 दिसंबर को हो गयी है। जिसका अंतिम संस्कार से लेकर सारे श्राद्ध कार्यक्रम कुडमालि नेग नेगाचारी से किया जायेगा। जिसमें दशकर्म के दिन ही सारे श्राद्ध कार्यक्रम संपन्न होंगे। आदिवासी कुडमि समाज के समाज सुधारक श्यामल बिहारी महतो ने बताया कि कुडमालि नेग नेगाचारी से श्राद्ध करने से हर गरीब को कम से कम तीस हजार रुपए की बचत होगी जो पंडित जी के दान पुण्य में खर्च होते थे. साथ ही समय की भी बचत होगी। इस नेगाचारी में मात्र पांच सौ ही खर्च होता है। साथ ही कहा कि हर समारोह श्राद्ध, शादी विवाह, घर उड़ाही सहित कई समारोह कुडमालि नेग नेगाचारी से किये जायेंगे। आदिवासी कुडमि समाज के विद्वान राकेश महतो व दीपक महतो ने कहा कि हमारा समाज अपने रीति-रिवाज को छोड़कर दूसरे की संस्कृति में समाहित हो गया है. अब समाज के लोगों को अपने पुराने रीति-रिवाज में वापस लाने के लिए अपने रीति-रिवाज, संस्कृति व सभ्यता की जानकारी दी जा रही है। साथ ही कहा कि झारखंड की कुडमी जनजाति जिस मत पर विश्वास करती है वो सारना या सारी या सत्य धर्म कहलाता है। इस मत में किसी भी काल्पनिक देवी-देवता की पूजा या आराधना नहीं की जाती है। इसमें आत्मा और पुनर्जन्म जैसी बातों को भी नहीं माना जाता है। इसलिए दाह-संस्कार के बाद लौटते समय रास्ते में बेर की एक टहनी रखकर कहा जाता है, “आज ले तर रास्ता हुदगे, हामर रास्ता इदगे”। कुडमी अपने किसी पारिवारिक सदस्य की मृत्यु के पश्चात दस दिनों तक शोक मनाते हैं, फिर दसवें दिन दशकर्मा जिसे कुडमाली में “घाट” कहा जाता है, मनाया जाता है। ग्यारहवें दिन अपने सभी पूर्वजों की आराधना की जाती है। ग्यारहवें दिन सगे संबंधियों के साथ मिल बैठकर भोजन किया जाता है. इस प्रकार अंतिम संस्कार सम्पन्न हो जाता है। सभी संस्कार मृतक का भान्जा, पारिवारिक बुजुर्ग या पीढ़ी के सदस्य की देखरेख में संपन्न किया जाता है। इसमें कहीं भी ब्राह्मण या वैष्णव की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

नावाडीह प्रखंड के ऊपरघाट स्थित कंजकिरो पंचायत के पिलपिलो में कुडमालि नेग नेगाचारी से 23 दिसंबर तेलखोर के साथ बोना घास में पानी दस दिन तक डालने व 30 दिसम्बर को दिन में श्राद्ध कार्यक्रम, रात में धर्मशाला एकादश के दिन सरद सडरन के साथ संपन्न होगा। इस दौरान आदिवासी कुडमी समाज के महादेव डुंगरिआर,ध्रुव टिडुआर,तुलसी, डुंगरिआर,खेमनारायण कडुआर,सरिअन कडुआर, मुकेश संखु आर,श्यामल बिहारी मुत्रआर, नारायण हिन्द आर, नीतीश हिन्द आर,कमल प्रसाद काछुआर केदार बनुआर सहित कई लोग उपस्थित रहेंगे।

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