नीरज सिसौदिया, नई दिल्ली
भारतीय जनता पार्टी ने पूर्व केंद्रीय मंत्री और मूल रूप से हिमाचल प्रदेश के रहने वाले जय प्रकाश नड्डा को पार्टी का नया राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया है. नड्डा के अलावा इस पद के लिए किसी भी भाजपा नेता ने नामांकन नहीं किया था. लेकिन नड्डा की राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर ताजपोशी के साथ ही कई सवाल भी खड़े हो रहे हैं. सबसे पहला सवाल यह है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद नड्डा के लिए कितना फायदेमंद और कितना चुनौतीपूर्ण साबित होगा? खास तौर पर तब जबकि भाजपा बुरे दौर से गुजर रही है. हाल ही में महाराष्ट्र और झारखंड की सत्ता गंवा चुकी भाजपा दिल्ली फतह करने की भी उम्मीद करना तो दूर इस बारे में सोच तक नहीं सकती है. भाजपा के लिए दिल्ली अभी काफी दूर है लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा हारती है तो जेपी नड्डा के खाते में पहली नाकामी बिना किसी कसूर के ही दर्ज हो जाएगी. यानी नड्डा के लिए यह ‘सिर मुंडाते ही ओले पड़ने’ वाली बात हो जाएगी. बेचारे नड्डा बनना तो चाहते थे हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री लेकिन वो कभी भाजपा ने उन्हें बनने ही नहीं दिया और वो सीएम इन वेटिंग ही रह गए. राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद भी मिला तो ऐसे वक्त पर मिला जब एक के बाद एक भगवा ब्रिगेड का साम्राज्य सिमटता जा रहा है.
बहरहाल, नड्डा की मुश्किलें सिर्फ दिल्ली विधानसभा चुनाव में ही खत्म नहीं होतीं. इसी साल के अंत में बिहार में भी विधानसभा चुनाव होने हैं. बिहार में अगर भाजपा फिर से सुशासन बाबू नीतीश कुमार के आगे नतमस्तक होती है तो जरूर नड्डा जी लाज बचा लेंगे वरना देवभूमि के नड्डा का बिहार में भी भगवान ही मालिक होगा.
नड्डा का चुनावी सफर यहीं पर खत्म नहीं होने वाला. बिहार के बाद नड्डा के चुनावी रथ को बंगाल की यात्रा भी करनी पड़ेगी. वहां पहले ही दीदी और कामरेड भगवा ब्रिगेड को धूल चटाने का इंतजार कर रहे हैं. यहां भी नड्डा अपने दम सिर्फ गठबंधन ही बना सकते हैं, सरकार नहीं. 2021 में बंगाल में होने वाले चुनाव से पहले नड्डा को इतना समय नहीं मिलने वाला कि वह बंगाल में पार्टी को और मजबूती से खड़ा सकें. खासतौर पर तब जबकि सीएए और एनपीआर जैसे फैक्टर पहले ही बंगाल में भाजपा का बेड़ा गर्क करने में लगे हुए हैं. इन तीन राज्यों के बाद भी नड्डा की परीक्षा खत्म नहीं होने वाली. उनकी सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा वर्ष 2022 में होगी. बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा के कार्यकाल का यह तीसरा और अंतिम साल होगा. इस साल पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. पंजाब में तो वैसे भी नड्डा के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष बनते ही भाजपा में हिमाचल और पंजाब गुट बनने शुरू हो गए थे. यहां मनोरंजन कालिया, अविनाश राय खन्ना जैसे दिग्गज नेताओं को दरकिनार कर अश्विनी शर्मा को पार्टी की कमान सौंपी गई है. वैसे प्रदेश अध्यक्ष की दौड़ में हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के करीबी राकेश राठौर का नाम भी शामिल था लेकिन चूंकि नड्डा और धूमल दो अलग-अलग खेमे हुआ करते थे, शायद इसलिए राकेश राठौर को साइड लाइन कर दिया गया. अकाली दल वैसे ही यहां भाजपा को समय-समय पर आंखें दिखाता रहा है. और अब तो आम आदमी पार्टी यहां तीसरी ताकत के रूप में उभर चुकी है. दिल्ली में अगर दोबारा आम आदमी पार्टी की सरकार बनती है तो पंजाब में अपना अलग अस्तित्व बनाने का भाजपा का सपना जेपी नड्डा के कार्यकाल में भी सपना ही रह जाएगा.
उत्तर प्रदेश के चुनावों में भी भाजपा की स्थिति बहुत अच्छी नहीं रहने वाली. योगी राज में जिस तरह के हालात बनते जा रहे हैं वो भाजपा के सियासी भविष्य के लिए बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते. उपचुनावों के परिणामों के रूप में इसकी बानगी भी देख चुके हैं. उत्तराखंड की सियासी हवाएं तो अभी से भाजपा के उलट बहने लगी हैं. न विकास हुआ और न वादे वफा हुए. पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी आज भी पहाड़ के काम नहीं आ रही. पहाड़ी गांवों दिन-ब-दिन खाली होते जा रहे हैं. बेरोजगारी नए रिकॉर्ड बनाने को बेताब है.
इन सबसे जूझने की चुनौती नड्डा के समक्ष होगी. खासकर तब जबकि नड्डा के पास उपलब्धियों के नाम पर गिनाने को कुछ नहीं है. कमंडल की सियासत से सत्ता की मंजिल अब नहीं मिलने वाली, यह बात खुद नड्डा भी बेहतर तरीके से समझते होंगे. कुल मिलाकर नड्डा के कार्यकाल के तीन साल चुनावों के नाम रहने वाले हैं. जिनमें कामयाबी की कोई उम्मीद फिलहाल तो नजर नहीं आती. अगर इन चुनावों में नड्डा कोई चमत्कार नहीं कर पाए तो निश्चित तौर पर भारतीय जनता पार्टी के इतिहास में नड्डा नाम सबसे नाकाम अध्यक्ष के तौर पर दर्ज हो जाएगा.
किसी ने खूब कहा है कि ‘लहरों के साथ तो हर कोई तैर लेता है, असल तैराक वो है जो लहरों को चीरकर आगे बढ़ता है.’ अमित शाह उस दौर में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए थे जब सियासी लहरों का रूख भाजपा की दिशा में था. मगर आज लहरों ने मुंह मोड़ लिया है. अब देखना दिलचस्प होगा कि नड्डा का कार्यकाल भाजपा के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जायेगा या काले अध्याय के रूप में दर्ज होगा.