बिहार

बिहार चुनाव : पलायन, उद्योग और नेताओं के बिगड़े बोल

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नीरज सिसौदिया 

क्षेत्रफल की दृष्टि से बिहार का देश का 13वां सबसे बड़ा राज्य है लेकिन आबादी के लिहाज से यह तीसरे स्थान पर है। यहां 28 अक्टूबर से सात नवंबर के बीच विधानसभा चुनाव होने हैं। दशकों से गरीबी और बदहाली का दंश झेल रहे बिहार में हर बार तीन प्रमुख मुद्दों पर चुनाव लड़ा जाता है। पहला जाति-धर्म, दूसरा विकास-उद्योग और तीसरा और सबसे बड़ा मुद्दा रोजगार के लिए पलायन का है। आसन्न चुनावों में यह मुद्दा और भी बड़ा इसलिए हो गया है क्योंकि कोरोना संकट ने बिहार के उन लोगों को भी घर लौटने को मजबूर कर दिया जो दूसरे राज्यों में रहकर बसर कर रहे थे। सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि जून 2020 तक लगभग 32 लाख प्रवासी रोजगार छिनने के बाद वापस बिहार आए हैं। सरकार इन्हें अपने घर में काम देने में नाकाम साबित हुई है। यह संकट बिहार विधानसभा चुनावों में एक प्रमुख मुद्दा है, खासकर नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जद (यू)-बीजेपी गठबंधन सरकार के लिए। 28 अक्टूबर से शुरू होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले निर्वाचन आयोग ने पिछले छह महीनों में 6.5 लाख नए मतदाताओं को मतदाता सूची में जोड़ा है। इनमें से तीन लाख प्रवासी मजदूर हैं जो लॉकडाउन के दौरान घर लौट आए।
दररअसल, लालू यादव परिवार की सरकार का कार्यकाल हो या नीतीश कुमार नीत गठबंधन सरकार का, बिहार में उद्योगों को संजीवनी कोई भी सरकार नहीं दे सकी। नीतीश कुमार जब पहली बार वर्ष 2005 में बिहार की सत्ता पर आए थे तो यहां की लगभग 29 चीनी मिलें अस्तित्व की जंग लड़ रही थीं। एक दौर था जब ये चीनी मिलें बिहार के किसानों की उम्मीद हुआ करती थीं। उस दौर में बिहार में गन्ने की खेती भी बड़े पैमाने पर हुआ करती थी। राजद के कार्यकाल में ये मिलें गर्त में जानी शुरू हो गई थीं और नीतीश के सुशासन में दम तोड़ गईं। नीतीश सरकार ने इनकी दशा सुधारने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
कुछ ऐसा ही हाल जूट मिलों का हुआ। एक-एक कर राज्य की सारी जूट मिलें बंद होती गईं और बेरोजगार कर्मचारी दूसरे राज्यों में पलायन को मजबूर हो गए। नीतीश सरकार ने इन जूट मिलों के उद्धार के लिए भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया और पलायन का दर्द नासूर बनता चला गया।
बिहार की जनता को एक बड़ी मार शराब बंदी ने भी मारी। नीतीश सरकार के इस कदम की सराहना तो खूब हुई लेकिन इस फैसले ने राजस्व को चपत लगाने के साथ ही हजारों लोगों को बेरोजगार भी कर दिया। बिहार की तमाम शराब फैक्ट्रियां तो बंद हो गईं लेकिन शराब बंद नहीं हुई। इन शराब फैक्ट्रियों और ठेकों पर काम करने वाले बेरोजगार हो गए।
चीनी उद्योग, जूट उद्योग और शराब उद्योग बिहार के तीन प्रमुख उद्योग थे जो पूरी तरह दम तोड़ चुके हैं। ये उद्योग तो बंद हुए लेकिन इनके एवज में कोई भी उद्योग बिहार में नहीं लग सका। 15 साल में भी नीतीश सरकार पलायन के दर्द को कम नहीं कर सकी। हाल ही में जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से नए बडड़े उद्योग न आने के संबंध में सवाल किया गया तो नीतीश का जवाब बेहद हास्यास्पद था। नीतीश ने कहा कि बिहार समुद्र के किनारे नहीं है इसलिए यहां बड़े उद्योग नहीं आ रहे। वहीं, दूसरी ओर भाजपा नेता सुशील मोदी रैलियों में एलान कर रहे हैं कि बिहार में जदयू-भाजपा गठबंधन की सरकार बनेगी तो प्रदेश में उद्योगों का जाल बिछा दिया जाएगा। अब सवाल यह उठता है कि अगर बिना समंदर के उद्योग नहीं लग सकते तो क्या सुशील मोदी चुनाव जीतने के बाद बिहार में समंदर लेकर आएंगे? अगर बिना समंदर के भी उद्योग लग सकते हैं तो फिर 15 साल से सुशील मोदी और सुशासन बाबू उद्योग क्यों नहीं लगवा पाए? दागी नेताओं को लेकर भी नीतीश कुमार का दोगलापन सामने आ चुका है। मुजफ्फुर बालिका गृह में बच्चियों के यौन शोषण का मामला अब तक पूरा देश नहीं भूला है लेकिन सुशासन बाबू भूल गए। ये वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने बालिका गृह में बच्चियों के साथ हुए इस घिनौने अपराध में आरोपी पाए जाने पर अपनी ही सरकार की कैबिनेट मंत्री मंजू वर्मा को बर्खास्त कर दिया था। अब चुनाव सिर पर आए तो उसी मंजू वर्मा को पार्टी का टिकट देकर उम्मीदवार बना दिया। मंजू वर्मा के हौसले इतने बुलंद हो गए कि उन्होंने पूरी यादव जाति को ही कुकर्मी कह डाला। नीतीश कुमार की मौकापरस्ती और नाकामियां अब जगजाहिर हो चुकी हैं। स्पष्ट है कि विकास में नाकाम सरकार इस बार ऐसे ही हथकंडों से चुनाव जीतने का ख्वाब देख रही है।
बात अगर मनरेगा की करें तो यहां भी नीतीश सरकार विफल ही साबित हुई है। 2004 से मनरेगा पर काम कर रहे एक स्वतंत्र निकाय, पीपुल्स एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी (पीएईजी) ने बिहार में इसकी प्रगति को जुलाई और अगस्त के बीच ट्रैक किया, ताकि मनरेगा प्रबंधन सूचना प्रणाली (एमआईएस) से कुछ व्यापक आंकड़े प्रदान किए जा सकें। जैसे-कितने परिवारों ने 100 दिनों का काम पूरा कर लिया है, 100 दिनों के काम को पूरा करने वाले घरों की संख्या, राज्यों के पास बचे धन की राशि, काम की मांग के बीच तुलना और चुनिंदा राज्यों के लिए प्रदान किए गए रोजगार। पीएईजी ने उल्लेख किया कि सरकार ने 34 लाख परिवारों को रोजगार देने का दावा किया है – जो पिछले तीन वर्षों में सबसे अधिक है। लेकिन इनमें से केवल 2,136 परिवारों ने अब तक 100 दिन का काम पूरा किया है। इसकी तुलना में मध्य प्रदेश में 33,000 और राजस्थान में 27,000 परिवारों ने 100 दिन का काम पूरा किया है। अप्रैल को छोड़कर, अगस्त 2020 तक जिन परिवारों को रोज़गार दिया गया था, उनकी संख्या पिछले तीन वर्षों की तुलना में कम से कम 1.5 गुना अधिक थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार में 1 अप्रैल, 2020 से कम से कम 11.01 लाख जॉब कार्ड जारी किए गए थे। बिहार में जारी किए गए 83 लाख जॉब कार्ड में से 14.17 प्रतिशत जॉब कार्ड इसी दौरान जारी किए गए थे।
वैशाली बिहार के उन 32 जिलों में से एक है जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रवासी मजदूरों को रोजगार देने के लिए 20 जून 2020 को गरीब कल्याण रोज़गार अभियान की शुरुआत की थी। इस योजना से उन प्रवासी मजदूरों को कुछ राहत मिलने की उम्मीद की गई थी जो अपने मूल राज्यों में काम करने के बाद वापस लौट आए थे। छह महीने बाद, प्रवासी श्रमिक और उनके परिवार भूख से मर रहे हैं क्योंकि इस गरीब-विरोधी सरकार ने अपनी बात नहीं रखी है। बिहार के अधिकांश युवा सरकार से नाराज हैं। वे बेरोजगार, निराश हैं और उन्हें लगता है कि जब तक चुनाव उन पर नहीं होंगे तब तक सरकार उन्हें नोटिस नहीं करेगी।
जाति की बात करें तो महादलित बिहार में दलितों की उपश्रेणी माने जाते हैं और राज्य की आबादी का लगभग 18 प्रतिशत हिस्सा महादलितों का ही है। 2007 में, नीतीश कुमार 20 सबसे पिछड़ी और वंचित अनुसूचित जातियों को एक छत के नीचे लाये और इस समूह को महादलित नाम दिया गया। उन्होंने आर्थिक और सामाजिक उत्थान के लिए योजनाओं और कार्यक्रमों की घोषणा की थी लेकिन उनके हालात भी नहीं सुधरे।
बहरहाल, कागजी योजनाओं और उनकी जमीनी वास्तविकता के बीच एक बड़ा अंतर है। 15 साल में भी पलायन का दर्द कम नहीं हुआ। इस पर नेताओं के बिगड़े बोल बेबसों के जख्मों को कुरेदने का काम कर रहे हैं। इन सभी पहलुओं ने बिहार चुनाव को एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। इसका परिणाम आने वाला वक्त ही बताएगा।

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