राजकुमार अग्रवाल 38 वर्षों से लगातार व्यापार मंडल के जिला अध्यक्ष बनते आ रहे हैं. सर्राफा के वह 41 वर्षों से अध्यक्ष हैं. तब और अब में वह क्या फर्क महसूस करते हैं? व्यापारियों को लेकर सरकार और अधिकारियों के रवैये को वह किस नजरिये से देखते हैं? व्यापार मंडल का गठन कब और कैसे हुआ? वर्तमान में व्यापारियों की क्या-क्या समस्याएं हैं? व्यापारियों के कौन कौन से मुद्दे हैं जिनका हल अब तक नहीं हो सका? सरकार को व्यापारियों के लिए नियम बनाने से पहले किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? इन सभी मुद्दों पर नीरज सिसौदिया ने उनसेे खास बातचीत की. पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश…
सवाल : बरेली में व्यापार मंडल की शुरूआत कब और कैसे हुई?
जवाब : लगभग 40-42 साल पहले कुतुबखाने में तहसील पर चुन्ना मियां की बिल्डिंग हुआ करती थी जहां अब स्टेट बैंक है. इसी बिल्डिंग में सबसे पहले एक मीटिंग हुई जिसमें शहर के विभिन्न प्रतिष्ठित व्यापारी शामिल हुए. इसमें हमारे पिता लाला हरनाम दास, सेठ त्रिलोक चंद और लाला प्रह्लाद राय जैसे व्यापारी शामिल हुए और तय किया गया कि व्यापार मंडल का गठन किया जाए. मीटिंग का नेतृत्व लाला विशम्भर दयाल अग्रवाल ने किया था. उनके नेतृत्व में मीटिंगें आगे भी होती रहीं लेकिन वो व्यापार मंडल का रूप नहीं ले सका क्योंकि उनमें कोई इतना समर्थ नहीं था कि अफसरों के सामने व्यापारियों की बात को पुरजोर तरीके से रख सके. सभी बुजुर्ग लोग थे और लिहाज की वजह से भी अफसरों से कुछ नहीं कह पाते थे. बाद में हम लोग उनसे जुड़े और सभी बुजुर्गों को ससम्मान संरक्षक के रूप में साथ रखा.
सवाल : आप व्यापार मंडल से कब जुड़े और उस वक्त कितने सदस्य थे?
जवाब : लगभग 38 साल पहले जब हम व्यापार मंडल से जुड़े तो उस वक्त गिने-चुने लोग ही इससे जुड़े थे. उस वक्त लोग अफसरों से इतना डरते थे कि व्यापार मंडल से जुड़ने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाते थे. जिले की तहसीलों में तो कोई था ही नहीं. फिर धीरे धीरे हमने व्यापारियों का डर खत्म किया और व्यापारियों को जोड़ा.
सवाल : आप 31 साल एक ही व्यापार मंडल का हिस्सा रहे. फिर इतने लंबे समय बाद पहले व्यापार मंडल को छोड़कर राजेंद्र गुप्ता वाले गुट में क्यों शामिल हो गए?
जवाब : जब हम व्यापार मंडल से जुड़े थे तो उस वक्त सिर्फ एक ही व्यापार मंडल था. पहले जब दुकानदारों के पास कस्बे में जाते थे तो व्यापारी बहुत डरते थे व्यापार मंडल के नाम से. अफसरों का इतना खौफ था कि व्यापारी हमसे जुड़ने को तैयार नहीं था. हम लोगों के प्रयास से प्रदेश नेतृत्व के प्रयास से जिले में व्यापार मंडल का गठन हुआ. बहुत धूम से जिले में व्यापार मंडल की शुरूआत हुई. व्यापारियों को भी दिखाई दिया कि व्यापार मंडल ही ऐसी चीज है जो हमारी रक्षा कर सकता है. उस वक्त निष्पक्ष सेवा होती थी. पहले लेन-देन जैसी कोई बात नहीं होती थी पर अब बहुत से व्यापार मंडल बन गए जिससे व्यापार मंडल की छवि खराब हुई और वजन भी कम हुआ. हमारे नेताओं ने ही व्यापार मंडल की छवि खराब की. मैं 31 साल तक अध्यक्ष रहा व्यापार मंडल का. मगर फिर हमारा शीर्ष नेतृत्व मनी माइंडेड हो गया. कंचन को चाहिए सिर्फ पैसा बनाने वाले लोग. हम पैसा इकट्ठा नहीं करते थे. उन लोगों को सिर्फ पैसा इकट्ठा करने वाले चाहिए थे. इसी बात को लेकर हमारी उनसे गहमा गहमी हो गई. हम पैसा इकट्ठा नहीं कर सकते थे इसलिए हम अलग हो गए. फिर हम राजेंद्र गुप्ता और श्याम बिहारी मिश्रा वाले व्यापार मंडल से जुड़ गए.
सवाल : आपकी नजरों में व्यापार मंडल की क्या भूमिका होनी चाहिए?
जवाब : देखिये, व्यापार मंडल का गठन तो व्यापारियों के हितों के लिए हुआ है लेकिन हम ये समझते हैं कि हम उतनी सेवा नहीं कर पाए. उसका मुख्य कारण है बहुत से व्यापार मंडलों का गठन हो जाना. अब अफसरों में वो खौफ रहा नहीं.
सवाल : वर्तमान में व्यापारियों की मुख्य समस्याएं क्या हैं?
जवाब : समस्याएं ही समस्याएं हैं. पर अब व्यापारी अपने स्तर से ही इन समस्याओं को निपटा लेता है. वो जानता है कि अगर नेताओं के पास जाएगा तो पैसा खर्च होगा और शोषण भी हो सकता है. इसलिए पैसा दो और काम कराओ, खुली छूट है.भ्रष्टाचार इतना बढ़ा हुआ है प्रदेश में कि हर अफसर बेखौफ होकर खुले पैसे मांगता है. बिजली में देख लें, लेबर में देख लें, कांटा बाट में देख लें. हर डिपार्टमेंट में लूट मची हुई है.
सवाल : अगर व्यापारी सही तरीके से काम कर रहा है तो क्या जरूरत है उसे अफसरों को पैसे देने की?
जवाब : नामुमकिन बात. एकदम असंभव है. हम लोग न तो इतने पढ़े लिखे हैं और न ही इतनी हमारी आमदनी है कि सीए और वकीलों को इंगेज कर लें. हमी से क्यों आशा की जाती है कि हमारे कागज पूरे होने चाहिए? सरकारी दफ्तरों में जाकर देख लें कि कितनी फाइलें इनकंप्लीट हैं. हमारे कागज पूरे नहीं हैं तो हमें सजा है लेकिन सरकारी दफ्तरों में फाइलें पूरी नहीं हैं तो उन्हें कोई सजा नहीं. कोई सुनने वाला ही नहीं है. आप एक अनपढ़ आदमी से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वो हर चीज़ मेंटेन करके चलेगा.
सवाल : लेकिन जो नियम हैं उनका पालन तो होना चाहिए?
जवाब : तो सरकारी कर्मचारी भी करें. उनके यहां भी छापे मारो. जिनकी फाइलें पेंडिंग पड़ी हैं उन्हें सस्पेंड करो. हमी पर क्यों गाज गिरी है. देखिये फर्क है, प्रैक्टिकल बात पर आइये, नियम चाहे कुछ भी बना दो. क्या नियम का पालन सरकार कर रही है? फिर हमसे क्यों आशा कर रही है. इतने हाईली पेड अधिकारी रखे हैं सरकार ने. उनसे तो आप उम्मीद कर नहीं रहे हैं. हमसे सारी उम्मीद है.
सवाल : तो आप चाहते हैं कि सरकार नियमों में ढील दे?
जवाब : नहीं, हम चाहते हैं कि नियम बनाने से पहले सरकार हमारे व्यापारी नेताओं से बात करे. हम बताएंगे कि क्या कठिनाई है हमारी. वहां बैठे अफसर बना देते हैं कानून. कौन देख रहा है. थोप दिया हमारे ऊपर. हम टैक्स दे रहे हैं और नियम हमारे लिए बनने हैं तो हमसे भी तो पूछा जाए.
सवाल : और क्या जरूरत महसूस होती है आपको व्यापार को आगे बढ़ाने के लिए?
जवाब : देखिये, सरकार की अखबारों में सहूलियतें बहुत हैं पर प्रैक्टिकली कुछ भी नहीं है. हमारे सर्राफे में आया कि दो करोड़ रुपये मिलेंगे लोन पर. फार्म भरकर दे दिए लेकिन आज तक कुछ नहीं हुआ. कारीगरों को पच्चीस लाख तक लोन मिलना था. जिले से व्यापार मंडल ने पांच-छह सौ लोगों के फार्म भरवाए पर आज चार माह बाद भी एक व्यक्ति को भी लोन नहीं मिल सका. उद्योग विभाग में ये फार्म फाइलों की धूल चाट रहे हैं.
सवाल : आपके संतोष गंगवार केंद्रीय मंत्री हैं, राजेश अग्रवाल मंत्री रह चुके हैं, आपने कभी इन लोगों के पास अप्रोच नहीं किया?
जवाब : इस सवाल पर मैं सिर्फ हंस ही सकता हूं जवाब नहीं दे सकता. कोई पकड़ नहीं है इन दोनों नेताओं की. ये व्यापारियों के हित में कुछ नहीं करवा सकते.
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