नीरज सिसौदिया, बरेली
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समर्पण और सेवा का दूसरा रूप है. कार्यकर्ताओं के समर्पण की वजह से ही यह आज भी अपने मूल स्वरूप को अक्षुण्ण बनाए हुए है. संघ के एक ऐसे ही सिपाही का नाम है संजीव अग्रवाल. पिता के आदर्शों पर चलते हुए संजीव अग्रवाल महज 13 साल की उम्र से ही संघ की सेवा में जुट गए थे. संजीव बताते हैं, ‘मेरे पिता स्व. शिवरतन अग्रवाल ही मेरे प्रेरणा स्रोत रहे हैं. वह भी बाल्यकाल से ही संघ से जुड़ गए थे और आखिरी सांस तक संघ की सेवा करते रहे. उन्हीं से प्रेरणा लेते हुए मैंने भी 13 साल की उम्र में ही संघ की सेवा शुरू कर दी थी. तब मैं बहुत छोटा इसलिए बहुत बड़े स्तर पर तो सेवा नहीं कर पाता था लेकिन जनसंघियों तक रोटी, कचौड़ी, खाना, पानी आदि पहुंचा कर बड़ा सुकून मिलता था.’
संजीव अग्रवाल कॉलेज टाइम से ही राजनीति में सक्रिय हो गए थे. वर्ष 1978 में उन्होंने जो सफर शुरू किया वह आज भी जारी है. उन्होंने न तो अपना लक्ष्य बदला और न ही पार्टी. संजीव बताते हैं, ‘ संघ से जुड़ाव होने के साथ ही मैं कॉलेज टाइम में राजनीति में भी सक्रिय हो गया था. पहले जनसंघ में जुड़ा रहा फिर जनता पार्टी और फिर भारतीय जनता पार्टी का हिस्सा बना. सही मायनों में देखा जाए तो मैं सक्रिय राजनीति में वर्ष 1978 में आ गया था. फिर वर्ष 1980 में भाजपा से जुड़ने के बाद आज तक इसी का हिस्सा हूं और आखिरी सांस तक रहना चाहूंगा.’
संजीव भाजपा में कई अहम जिम्मेदारियां भी निभा चुके हैं. अपने राजनीतिक सफर के बारे में पूछने पर वह कहते हैं, ‘ 1984-85 का समय रहा होगा जब मुझे पहली बार पार्टी ने बड़ी जिम्मेदारी सौंपी थी. मुझे युवा मंडल अध्यक्ष बनाया गया था. फिर कोषाध्यक्ष भी रहा और बाद में वर्ष 2006 में साहूकारा से पार्षद भी बना. एक बार पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह को खून से तौला गया था. इसके लिए प्रदेश भर से पार्टी नेताओं ने खून भेजा था. संजीव ने भी इस अभियान में अहम योगदान दिया था. उन्होंने 130 यूनिट रक्त भेजा था.’
पार्षद रहते हुए संजीव ने इलाके में कई विकास कार्य करवाए. इसके अलावा उन्होंने सबसे अधिक बात जनहित के उस मुद्दे की उठाई जिस पर आम तौर पर पार्षद बात करने से कतराते हैं. यह मुद्दा जनता पर अधिकारियों द्वारा थोपे जाने वाले टैक्स का रहा. संजीव कहते हैं, ‘ पार्षद रहते हुए मैंने अपने वार्ड के सात में से पांच गेटों का जीर्णोद्धार कराया था. कई सड़कें भी बनवाईं लेकिन सबसे बड़ा मुद्दा जनता पर लगाए जाने वाले टैक्स का उठाया. आमतौर पर जानकारी के अभाव में पार्षद इस मुद्दे पर न तो बात करते हैं और न ही अधिकारियों से कोई सवाल पूछते हैं. यही वजह है कि अधिकारी मनमाने टैक्स जनता पर लाद देते हैं. मैेंने इस मुद्दे को उठाया और जनता पर मनमाना टैक्स लागू नहीं होने दिया.’
पार्षद रहते हुए संजीव ने नगर निगम की कार्यशैली और अधिकारियों की कारगुजारियों को बेहद करीब से देखा. संसाधन होने के बावजूद निगम की ओर से आज तक शहर का अपेक्षित विकास नहीं कराया जा सका है. इसकी वजह पूछने पर संजीव कहते हैं, ‘ नगर निगम में भ्रष्टाचार चरम पर है. कोई भी अधिकारी आता है तो वह शहर की जगह अपना विकास करने में जुट जाता है. अफसरशाही बेलगाम हो चुकी है. उसे विकास से कोई लेना देना नहीं है. विकास के नाम पर भेदभाव किया जा रहा है. वीआईपी इलाकों में तो काम करा दिए जाते हैं लेकिन अन्य इलाकों का हाल और भी बदतर होता जा रहा है. विकास चाहिए तो सबसे पहले नगर निगम को भ्रष्टाचार मुक्त बनाना होगा.’
राजनीति में सक्रिय भूमिका अदा करने के साथ ही संजीव अग्रवाल एक सर्राफा कारोबारी एवं उद्योग व्यापार मंडल के उपाध्यक्ष भी हैं. कोरोनी काल में अन्य कारोबार की अपेक्षा सर्राफा कारोबार सबसे अधिक प्रभावित हुआ क्योंकि लोगों को दैनिक उपयोग की चीजों के लिए आमदनी नहीं हो पा रही थी तो सोना चांदी कैसे खरीदते. ऐसे में सरकार ने कारोबार को फिर से पटरी पर लाने के लिए कई इंतजाम करने का दावा किया है लेकिन संजीव इन इंतजामों को नाकाफी मानते हैं. वह कहते हैं, ‘सरकार ने योजनाएं तो कई चलाईं लेकिन इन योजनाओं का लाभ सिर्फ सरकारी अधिकारियों को हो रहा है. धरातल पर इस पर अमल ही नहीं हो पा रहा है. जो वास्तविक जरूरतमंद है उस तक तो योजना पहुंच ही नहीं पा रही. आज सरकार जितने अधिक सख्त कानून बना रही है उतना ही फायदा अधिकारी उठा रहे हैं. सरकार अगर वास्तव में योजनाओं का आमजन तक पहुंचाना चाहती है तो उसे हर योजना की निगरानी के लिए एक जनप्रतिनिधि को नियुक्त किया जाना चाहिए. उसे यह अधिकार देना चाहिए कि वह लोगों तक योजनाओं का लाभ पहुंचा सके. वरना योजनाएं कभी कागजों से बाहर नहीं निकल पाएंगी.’
संजीव कारोबारियों को देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानते हैं. ऐसे में वह व्यापारियों के लिए विशेष सुविधाओं की भी वकालत करते हैं. खास तौर पर सर्राफा कारोबारियों को कोरोना काल में आने वाली परेशानियों के बारे में वह कहते हैं , ‘ कोरोना काल में पैसे का बाजार में संचार बंद हो गया. दूसरी ओर सोने और चांदी के दाम भी आसमान छूने लगे. लोगों की आमदनी चौपट होने के कारण अब उनके पास इतना पैसा नहीं रह गया कि वह सोना चांदी खरीद सकें. कई ऐसे कारोबारी भी सड़क पर आ गए जो सरकार को लाखों रुपए का टैक्स देते थे. ऐसे कारोबारियों को संकट से निकालने के लिए सरकार को इंट्रस्ट फ्री लोन मुहैया कराना चाहिए. साथ ही उन्हें टैक्स में भी छूट देनी चाहिए ताकि उनका कारोबार फिर से पटरी पर लौट सके.
बरेली में उद्योग दम तोड़ते जा रहे हैं. संजीव इसके लिए शहर के अधूरे विकास और कच्चे माल की अनुपलब्धता को मानते हैं. उद्योगों के विकास के लिए वह इनफ्रास्ट्रक्चर के विकास पर जोर देते हैं. साथ ही नगर निगम के अधिकारियों को भी जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं कि अपना शहर आज तक महानगर की श्रेणी में शामिल नहीं हो सका है. महानगर में शामिल होने के लिए किसी भी शहर की आबादी दस लाख या उससे अधिक होनी चाहिए. अपने शहर की आबादी लगभग 15 लाख है लेकिन निगम का आंकड़ा अभी तक सवा नौ लाख तक ही सिमटा हुआ है. यही वजह है कि आज हमारा शहर महानगर को मिलने वाली कई सुविधाओं और सहायताओं से वंचित रह गया है.