इंटरव्यू

महिला दिवस पर विशेष : गुमनामी के अंधेरे में साहित्य का सितारा ‘प्रमोद पारवाला’

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नीरज सिसौदिया, बरेली 

स्याही की एक बूंद भी लाखों लोगों को विचारमग्न कर देती है. यही वजह है कि समाज के सृजन में साहित्य की अहम भूमिका रहती है. साहित्य जहां समाज का दर्पण होता है वहीं, समाज को एक दिशा भी देता है. फिर चाहे क्रांति हो या प्यार एक कलमकार हर किरदार बाखूबी निभाता है. साहित्य का फलक बेहद विस्तृत है लेकिन कुछ सितारे ऐसे भी हैं जो गुमनामी के अंधेरों में कहीं खो गए हैं. आज समूचे विश्व में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर महिलाओं के सम्मान और नारी सशक्तिकरण के पैरोकारों की बाढ़ सी आ गई है. हर साल इस दिन हर तरफ महिला उत्थान की बातें होती हैं लेकिन महिला साहित्यकारों के उत्थान के प्रयास कागजों से बाहर नहीं निकल पाते. न तो उन्हें मंच मिलता है और न ही अवसर. बरेली की महिला साहित्यकार प्रमोद पारवाला भी एक ऐसा ही नाम है जो गुमनामी के अंधेरे में भी साहित्य को रोशन कर रहा है.
महज छठी क्लास में पहली रचना सृजित करने वाली पारवाला पैरों की तकलीफ की वजह से बाहर आने जाने में असमर्थ हैं पर उनकी कलम अब पहले से और बेहतर हो चुकी है.


अतीत के बारे में पूछने पर प्रमोद बताती हैं, ‘मेरा जन्म सात जुलाई वर्ष 1952 में बरेली शहर के भूड़ मोहल्ले में हुआ था. मेरे पिता स्व. गुलजारी लाल आर्या स्वतंत्रता सेनानी भी थे और शिक्षक भी. यह वो दौर था जब बेटियों को घर से बाहर निकलने तक की इजाजत नहीं होती थी पर मेरे पिता बेटियों की शिक्षा के समर्थन थे. यही वजह रही कि उन्होंने हम तीनों बहनों को पढ़ा-लिखा कर इस काबिल बनाया कि हम अपने पैरों पर खड़े हो सके.’
पारवाला ने उस उम्र में कहानियां लिखना शुरू कर दिया था जिस उम्र में बच्चे अपने कपड़े तक ठीक से नहीं पहन पाते. उनके घर में कोई साहित्यकार नहीं था मगर महज छह साल की उम्र में पहली कविता लिखकर सबको हैरान कर दिया. 6 वीं क्लास में उन्होंने यह कविता लिखी थी-
नीरस जीवन में स्नेह धार
बसा देती नूतन संसार
मिटा कर सब उर के दुख क्लेश बता देती जीवन का सार…

कविताओं के साथ उन्होंने कुछ कहानियां भी लिखी थीं. उनके लेखन का यह सिलसिला जारी रहा लेकिन कहीं भी उनकी कविताएं और कहानियां प्रकाशित नहीं हो पा रही थीं. वह सिर्फ लिखा करती थीं और स्कूल में जब कभी भी सांस्कृतिक कार्यक्रम होते तो प्रमोद पारवाला का काव्य पाठ भी उसका हिस्सा बन जाता था. प्रमोद पारवाला अपने फुफेरे भाई गोपाल विद्यार्थी से काफी प्रभावित थीं. उनकी भाई एक अच्छे लेखक थे. उनकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी थीं और बाद में वह सन्यासी बन गए तो उनका नाम गोपालानंद हो गया.
वर्ष 1972 की बात है जब प्रमोद की उम्र 18 या 19 साल रही होगी. वह बताती हैं कि उस दौरान जबलपुर में एक काव्य पाठ का आयोजन होना था जिसमें उन्हें भी आमंत्रित किया गया था. इस आयोजन में 21 प्रतिनिधि कवि चुने जाने थे लेकिन वह उस आयोजन का हिस्सा नहीं बन सकी. वह कहती हैं, ‘मैंने अपनी कविता पत्र के माध्यम से प्रेषित की और 21 चुने हुए प्रतिनिधि कवियों में एकमात्र महिला थी. उस वक्त मैंने जो कविता भेजी थी उसके बोल हैं-

ओ बंग देश के वीरों अमर वीर सेनानी,
क्या दे सकती है तुमको हम कवियों की वाणी…

बचपन में वह नन्दन चम्पक , चन्दामामा आदि पत्रिकाएं पढ़ा करती थीं. फिर कादम्बिनी , सरिता धर्मयुग आदि पढ़ती रहीं। उनके प्रिय कवि महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सुभद्रा कुमारी चौहान, मैथिली शरण गुप्त आदि हैं।मुरादाबाद से उस दौरान एक पत्रिका प्रकाशित होती थी जो मासिक पत्रिका थी. उसमें अक्सर मेरी कविताएं और कहानियां छप जाया करती थीं. बीटीसी करने के बाद में मैं बेसिक शिक्षा विभाग में सहायक अध्यापिका बन गई और इज्जत नगर सेंट्रल जेल स्थित स्कूल में मेरी पहली पोस्टिंग हुई. उस स्कूल में जेल के बच्चे ही पढ़ा करते थे. सरकारी नौकरी होने की वजह से मैं कभी भी कविता पाठ के लिए शहर से बाहर नहीं जा सकी. धीरे-धीरे मेरे मन में जो आता गया, जो मैं देखती महसूस करती उसे कागज पर उतार लेती थी.’
28 जून 1974 को प्रमोद पारवाला का विवाह कृष्ण मुरारी लाल पार वाला से हुआ जो एक चिकित्सक हैं. उनके दो बेटे और एक बेटी है लेकिन साहित्य में परिवार से कोई नहीं है. प्रमोद पारवाला को अजंता प्रकाशन जबलपुर की ओर से साहित्य प्रभाकर की उपाधि से भी नवाजा गया. प्रमोद पारवाला पिछले कई दशकों से साहित्य के प्रति समर्पित हैं. उनका काव्य संग्रह मन सीपी के बिखरे मोती और कहानी संग्रह विडंबना भी प्रकाशित हो चुके हैं. इन दोनों ही रचनाओं को काफी पसंद किया गया. वह अभी किताब लिख रही हैं लेकिन अभी वह पूरी नहीं हो सकी है. कई दशकों से साहित्य के सृजन में जुटी प्रमोद पारवाला इस लंबे अरसे में साहित्य की दुनिया में आए बदलाव को किस नजरिए से देखती हैं, पूछने पर कहते हैं कि पहले और अब में साहित्य में काफी बदलाव आ चुका है. पहले महिला साहित्यकार इतना खुलकर नहीं लिख पाती थीं और न ही उन्हें प्रोत्साहन मिलता था. सिर्फ कुमुद जी और इंद्र देव त्रिवेदी जैसे कुछ साहित्यकारों को छोड़ दें तो महिला साहित्यकारों को आगे बढ़ाने के लिए कोई प्रयास नहीं किए जाते थे मगर अब यह स्थिति बदल चुकी है. आज सोशल मीडिया के माध्यम से नए नए कविनए-नए लेखक नए-नए साहित्यकार बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं. आज महिलाएं खुलकर आगे आ रही हैं और उन्हें साहित्य में प्रोत्साहन भी मिल रहा है. सरकार भी इस दिशा में काफी प्रयास कर रही है लेकिन अभी सरकारी प्रयास नाकाफी हैं. इस दिशा में और प्रयास करने की आवश्यकता है. प्रकाशन अब काफी महंगा हो चुका है इसलिए कोई भी प्रकाशक साहित्यकारों की पुस्तकें नहीं छापना चाहता. जो भी पुस्तकें छपती हैं वह युवा साहित्यकारों को अपने ही खर्च से छपानी पड़ती हैं. ऐसे में प्रतिभाएं कहीं ना कहीं निराश होकर दम तोड़ने लगी हैं. मंच तो उन्हें कहीं न कहीं मिल जाता है लेकिन उनका लेखन समाज तक नहीं पहुंच पाता. सरकार को इस दिशा में प्रयास करने चाहिए. खास तौर पर महिला साहित्यकारों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें आगे बढ़ाने के लिए किताबें प्रकाशित कराई जानी चाहिए. ताकि अच्छा लेखन समाज तक पहुंच सके. प्रमोद पारवाला गीत भी लिखती हैं, कविताएं भी लिखती हैं, मुक्तक भी लिखती है और कहानियां भी लिखती हैं| राष्ट्र की पुकार, कादंबिनी जैसी पत्रिकाओं के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों में भी उनकी कविताएं एवं कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं. वर्ष 2003 में झांसी की संस्था विजय श्री साहित्य केंद्र की ओर से विजय श्री सम्मान से भी नवाजा जा चुका है. वर्ष 2008 में शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए रोटरी क्लब ऑफ बरेली विशाल की ओर से भी उन्हें पुरस्कृत किया जा चुका है. इतना ही नहीं वर्ष 2014 में सामाजिक संस्था सर्वजन हितकारी संघ बरेली की ओर से उन्हें सारस्वत अभिनंदन और वर्ष 2010 में साहित्य एवं सामाजिक संस्था शब्दांगन द्वारा उन्हें पांचाल शिरोमणि सम्मान से भी विभूषित किया जा चुका है. पारवाला की जो पहली कविता प्रकाशित हुई थी उसके बोल कुछ इस तरह से थे…

न जाने कितने रंगों से यह रंग आज दिखाया है
15 अगस्त का शुभ दिन भारत में फिर से आया है
उन्होंने अपनी कविताओं में कश्मीरियों के दर्द को भी बयां किया है और बेटी के प्रति अपने प्रेम को भी दर्शाया है. वे लिखती हैं…
आज वही तन्वी बन आई
जैसे फूल लता चुन लाई
इसका हास रहे कुसुमों सा
इस्मित में कलियां मुस्काईं
महिला साहित्यकारों की व्यथा बताते हुए प्रमोद पारवाला कहती हैं कि महिला साहित्यकार जितना सोचती हैं उतना कर नहीं पातीं. सरकार को एक सूची बनानी चाहिए जिसमें यह इंगित किया जाना चाहिए कि कौन सी महिला साहित्यकार किस चीज के लिए प्रसिद्ध हो रही है, क्या अच्छा कर रही है और उसे उसी में आगे प्रोत्साहित करना चाहिए. साहित्य जगत में आ रहे बदलावों से भी प्रमोद पारवाला चिंतित नजर आती हैं. वह कहती हैं कि साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है. यह इसीलिए कहा जाता है कि वह सही और गलत को दर्शाए. वे कहती हैं कि साहित्य एक साफ-सुथरी तस्वीर देता है लेकिन अब इसे विकृत रूप में भी प्रस्तुत किया जा रहा है. वह कहती हैं कि अच्छे साहित्य को अगर प्रोत्साहन मिलेगा तो वह निखर कर सामने आएगा, इसलिए सरकार समाज और साहित्यकार सभी को साहित्यकारों को आगे बढ़ाने की दिशा में सूचना चाहिए और प्रयास करना चाहिए.

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