नीरज सिसौदिया, बरेली
चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के चुनाव परिणाम आने के बाद देशभर में बड़े सियासी उलटफेर की चर्चाएं तेज हो गई हैं. भाजपा ने भले ही असम में जीत हासिल कर ली हो और पुड्डुचेरी में भी सबसे बड़ी पार्टी बन गई हो पर चर्चा सिर्फ बंगाल की हार की ही हो रही है. हो भी क्यों न? बंगाल में भाजपा ने प्रधानमंत्री, 22 केंद्रीय मंत्री, 6 राज्यों के मुख्यमंत्री और सिने जगत की जानी-मानी हस्तियों की फौज भी उतारी थी. इतना ही नहीं सांसदों तक को विधानसभा का चुनाव लड़ाया था. टीएमसी के नेताओं को भगवा ब्रिगेड में शामिल कर उन्हें भी टिकट दिया गया. कुछ वामपंथी भी टूटे थे और कुछ अंदरखाते समर्थन दे रहे थे. लेकिन इतनी बड़ी फौज भी विजय पताका फहराने में नाकाम रही. चूंकि बंगाल चुनाव मोदी बनाम ममता हो चुका था इसलिए केंद्र सरकार के खिलाफ उपजी एंटीइनकंबेंसी भारतीय जनता पार्टी को ले डूबी. तिस पर कोरोना की दूसरी लहर को लेकर केंद्र सरकार की बदइंतजामी ने आग में घी डालने का काम किया. बंगाल (Bengal) जैसे राज्य में हिन्दू-मुस्लिम चुनाव करना भी भाजपा को महंगा पड़ा. साथ ही कई अन्य फैक्टर रहे जिन्होंने भाजपा (Bjp) की हार में अहम भूमिका निभाई. भगवा ब्रिगेड की यह हार लोकतंत्र के लिए लाभदायक मानी जा रही है.
इतिहास गवाह है कि जब-जब सत्ता पर एकाधिकार हुआ है तब-तब लोकतंत्र कमजोर हुआ है. लोकतंत्र की मजबूती के लिए एक सशक्त विपक्ष का होना बेहद जरूरी है. कांग्रेस की एक के बाद एक पराजय के बाद मजबूत विपक्ष की जो अवधारणा दम तोड़ने लगी थी वह बंगाल में ममता की जीत के बाद और प्रबल हुई है.
दिल्ली का रास्ता बंगाल, झारखंड, बिहार और यूपी से होकर जाता है. बंगाल में दीदी आ चुकी हैं, झारखंड में हेमंत सोरेन (Hemant) संभाल रहे हैं और बिहार में भाजपा भले ही सत्ता रूढ़ गठबंधन का हिस्सा हो पर सुशासन बाबू से आगे नहीं निकल पाई है. अब मुख्य लड़ाई उत्तर प्रदेश में होनी है. यहां फिलहाल विपक्ष इतना डरा हुआ है कि भगवा ब्रिगेड से खुलकर लड़ना तो दूर जनहित के अहम मुद्दों पर ठीक तरह से विरोध तक दर्ज नहीं करा पा रहा है. आजम खां, मुख्तार अंसारी(bsp) और अतीक अहमद जैसे नेता भीगी बिल्ली बन चुके हैं. ऐसे में दूसरे कथित समाजवादी बिलों से बाहर निकलने की हिम्मत तक नहीं जुटा पा रहे. बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती. समाजवादी पार्टी में बिखराव और शिवपाल यादव (Shivpal Yadav) का अखिलेश से टकराव ही भाजपा की सबसे बड़ी ताकत मानी जा रही है. शिवपाल ब्रिगेड यूपी में कभी सरकार नहीं बना सकेगी यह तो जगजाहिर है लेकिन ‘भैया’ का खेल बिगाड़ने का दम जरूर रखती है. पिछली बार तो मोदी लहर ने योगी की नैया पार लगा दी थी इसलिए महागठबंधन भी भैया की नैया पार नहीं लगा सका मगर इस बार आधा काम कोरोना ने कर दिया है और आधा बंगाल में दीदी की जीत ने. अगर इस मौके का भी भैया फायदा नहीं उठा सके तो यूपी की सत्ता में वापसी उनके लिए नामुमकिन ख्वाब जैसी हो जाएगी. दीदी की जीत ने यह तो साबित कर दिया है कि नामुमकिन कुछ भी नहीं है. बंगाल में दीदी की अप्रत्याशित जीत ने देशभर के विपक्षी कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा का संचार कर दिया है. अब यह ‘भैया’ को देखना है कि इस ऊर्जा को सत्ता प्राप्ति की दिशा में वह कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं.
निश्चित तौर पर यूपी में इस बार भी चुनाव हिन्दू-मुस्लिम ही होगा. बंगाल में दीदी की जीत के बाद मुस्लिम वोटरों में यह संदेश तो जा चुका है कि एकजुटता से भगवा ब्रिगेड को मात दी जा सकती है मगर अकेले मुस्लिम वोट सत्ता तक पहुंचाने में सक्षम होते तो समाजवादी पार्टी सत्ता से बाहर कभी नहीं होती. सपा को यह समझना होगा कि मुस्लिम वोटर तो उसके पक्ष में एकजुट किए जा सकते हैं पर असली चुनौती हिन्दू मतदाताओं के ध्रुवीकरण को रोकने की है. कोरोना काल की बदइंजामी और बेरोजगारी ने काफी हद तक भाजपानीत योगी सरकार के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी का माहौल तैयार कर दिया है. खुद भाजपा के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष तक अपनी सरकार पर सवाल खड़े कर चुके हैं. इस माहौल को भाजपा के खिलाफ किस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है यह सोचना होगा. हिन्दू मतदाता को यह अहसास दिलाना होगा कि सपा सिर्फ मुसलमानों या यादवों की ही पार्टी नहीं है बल्कि पंजाबी, ईसाई, ठाकुर, ब्राह्मण, शूद्र, वैश्य हर वर्ग की पार्टी है.
भाजपा राज में मुस्लिम खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है. इसलिए वह किसी भी सूरत में भाजपा को सत्ताच्युत करना चाहता है. वर्तमान हालातों में मुस्लिम मतदाताओं के पास सपा ही एकमात्र विकल्प है. मुस्लिम जानते हैं कि सपा के अलावा कोई भी ऐसी पार्टी यूपी में नहीं है जो भाजपा को सत्ता से बेदखल कर सके. इसलिए दूसरे दलों के लिए वे कभी अपना वोट बर्बाद नहीं करेंगे. ऐसे में सपा को अपना फोकस दूसरी जातियों और धर्मों पर भी करना होगा.
चूंकि योगी राज से खुद भाजपा के कई नेता भी नाराज हैं, इसलिए भगवा ब्रिगेड के लिए वर्ष 2022 की राह आसान नहीं होगी.
ममता बनर्जी से अखिलेश यादव के रिश्ते बेहतर हैं. यूपी चुनाव में अखिलेश इसका लाभ ले सकते हैं. सही चुनावी रणनीति अखिलेश यादव (akhilesh yadav) को दोबारा सत्ता की सीढ़ियां चढ़ा सकती है. वक्त कम है और तैयारियां ज्यादा करनी हैं. कोरोना काल ने फिलहाल बाहर निकलना मुश्किल कर दिया है. ऐसे में सपा को अभी से जमीनी स्तर पर काम तेज करना होगा वरना बाद में सिवाय लकीर पीटने के कुछ नहीं रह जाएगा. अब भी देर नहीं हुई है. बंगाल के नतीजों ने दम तोड़ते विपक्ष को संजीवनी दे दी है. अगर बंगाल में दीदी वापसी कर सकती हैं तो यूपी में ‘भैया’ भी आ सकते हैं. बस इस उत्साह को ठंडा न पड़ने दें.
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