विचार

प्यार के दीप जलकर भला क्या करें…

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कब कहाँ कौन है अब सुरक्षित यहाँ, लोग घर से निकलते हुए भी डरें
हाय नफरत उगलती रही आग जब, प्यार के दीप जलकर भला क्या करें।

बढ़ गयी है बहुत लालसा की तपन, और इंसानियत हो गयी अब दफन
कूटनीतिक व्यवस्था हुई बेरहम, जो मरा आज उसका चुरा है कफन
लोग संवेदना बेचकर खा गए, आस्थाएँ यहाँ आज आहें भरें
हाय नफरत उगलती रही आग जब, प्यार के दीप जलकर भला क्या करें।

छातियों पर यहाँ मूँग जिसने दली, दाल उसकी सदा ही यहाँ पर गली
हो गया आज मनहूस वातावरण, सज्जनों ने यहाँ आँख अपनी मली
जो सताते रहे दूसरों को सदा, वे कभी भी किसी की न पीड़ा हरें
हाय नफरत उगलती रही आग जब, प्यार के दीप जलकर भला क्या करें।

मिल गया खूब धन आज जिसको यहाँ,ऐंठ में झूमता वह दिखायी दिया
बच सका फिर कभी भी न वह दंड से, न्याय यम ने सदा ही उचित है किया
मिल रहा लाभ जिनको अनैतिक यहाँ, काम अपना निकाले बिना क्यों टरें
हाय नफरत उगलती रही आग जब, प्यार के दीप जलकर भला क्या करें।

जो बना है यहाँ पर सभी का सगा, किसलिए दे रहा आज मिलकर दगा
लोग उल्लू बनें अब किसी भी तरह, भाव ऐसा अनोखा दिलों में जगा
इस कदर आज सक्षम यहाँ पर गिरे, निर्धनों पर बचा जो उसे भी चरें
हाय नफरत उगलती रही आग जब, प्यार के दीप जलकर भला क्या करें।

इस तरह योजनाएँ बनायी गयीं, आदमी ने यहाँ आदमी को ठगा
तिकड़मों का यहाँ दौर ऐसा चला, स्वच्छ समझा जिसे वह घिनौना लगा
योग्यता को न अब घास पड़ती कहीं, बेबसी में यहाँ लोग तिल- तिल मरें
हाय नफरत उगलती रही आग जब, प्यार के दीप जलकर भला क्या करें।

प्रस्तुति – उपमेंद्र सक्सेना एड.,  बरेली 

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