नीरज सिसौदिया, बरेली
अब तक मुस्लिम-यादव यानि एम-वाई फैक्टर के बल पर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने वाली समाजवादी पार्टी में अब अचानक से हिन्दू प्रेम जाग गया है. भाजपा के हिन्दुत्व के एजेंट की काट करने के लिए समाजवादी पार्टी भी इस बार हिन्दुओं को भारी तादाद में टिकट देने का मन बना रही है. समाजवादी नेता इसके पीछे बेहद अजीब सा तर्क दे हैं. उनका मानना है कि मुस्लिम तो एकतरफा वोट समाजवादी पार्टी को देगा ही लेकिन हिन्दुओं का वोट हासिल करना ज्यादा जरूरी है. इसलिए हिन्दुओं को ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ाना चाहिए. एक पुरानी कहावत है-
आधी छोड़ पूरी को ध्यावे
आधी मिले न पूरी पावे
अर्थात जो इंसान पूरा पाने की उम्मीद में जो आधी मिल रही होती है उसे भी छोड़ देता है तो उसे न आधी मिलती है और न ही वह पूरी चीज को हासिल कर पाता है. कुछ ऐसे ही रास्ते पर समाजवादी पार्टी भी चलती नजर आ रही है. वह सत्ता पाने के चक्कर में कहीं अपना मुस्लिम वोट बैंक भी न गंवा बैठे. मुस्लिम समाजवादी पार्टी से इसलिए प्रेम करता है क्योंकि सपा ने ही मुस्लिमों को उनके अधिकारों का रास्ता दिखाया था. यूपी विधानसभा में जिस तरह समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को प्रतिनिधित्व दिया था उसे देखकर ही मुसलमानों ने कांग्रेस से दूरी बनाई और सपा पर भरोसा जताया. अब वही सपा मुस्लिमों की सीटों पर कैंची चलाएगी तो मुसलमान नए विकल्प को तलाश लेगा. इनमें हैदराबादी भाईजान अोवैसी की पार्टी तो है ही, कांग्रेस के पास भी मुस्लिम को वापसी करते देर नहीं लगेगी.
जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक कमरुद्दीन सैफी सवाल उठाते हैं कि आखिर मुसलमान समाजवादी पार्टी को एकतरफा वोट क्यों दे? सपा न तो मुसलमान को मुख्यमंत्री बनाने जा रही है और न ही उप मुख्यमंत्री बना रही है. अब अगर उनकी सीटों पर भी कैंची चलाई जाएगी तो मुस्लिम कैसे भरोसा करेगा कि सरकार बनने के बाद सपा में उनके हित सुरक्षित रह सकेंगे. अखिलेश यादव इस गलतफहमी में बिल्कुल न रहें कि मुस्लिम समाज का एकतरफा वोट उनकी पार्टी को मिलेगा. मुस्लिमों के पास विकल्प की कोई कमी नहीं है. खास तौर पर जो आम मुस्लिम समाज है उसे भाजपा सरकार में भी कोई खास नुकसान नहीं हुआ है. भाजपा सरकार ने ऐसा कोई अत्याचार आम मुसलमानों पर नहीं किया है. कुछ जगह ज्यादतियां हुई हैं. अगर उनके आधार पर देखा जाए तो मुस्लिम समाज के पास विकल्प के रूप में कांग्रेस पहले से ही मौजूद है और ओवैसी की एआईएमआईएम तो खुलकर मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग कर रही है. ऐसे में मुस्लिम समाज एकतरफा वोट समाजवादी पार्टी को क्यों देगा?
अब बात अगर बरेली जिले की करें तो यहां भी मुस्लिम सीटें कम करने की चर्चाओं का बाजार गर्म है. मुस्लिम समाज समाजवादी पार्टी से जिन कारणों से जुड़ा था उनमें सबसे बड़ी वजह यही थी कि सपा उन्हें उनके अधिकार की सीटें दिया करती थी. साथ ही सपा ने मुस्लिम नेताओं को विशेषाधिकार दिए थे. अब समाजवादी पार्टी मुसलमानों के उसी अधिकार पर कैंची चलाएगी तो मुस्लिम समाज विभिन्न दलों में आसानी से बंट जाएगा. खास तौर पर शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के मुस्लिम नेता इस वोट बैंक को आसानी से अपने पाले में करने में कामयाब हो जाएंगे. उन्हें मुसलमानों को यह समझाने में तनिक भी देर नहीं लगेगी कि जब तक शिवपाल यादव सपा में थे तभी तक मुसलमानों के हित सपा में सुरक्षित थे और शिवपाल के अलग होते ही मुसलमानों के हित सपा में सुरक्षित नहीं रह गए हैं. बरेली जिले में कुल नौ विधानसभा सीटें हैं. इनमें से चार सीटों पर हर बार मुस्लिम उम्मीदवार ही सपा के टिकट पर चुनाव लड़ता आ रहा है. इनमें बरेली कैंट, मीरगंज, भोजीपुरा और बहेड़ी की सीटें शामिल हैं. अबकी बार चर्चा है कि नौ में से सिर्फ दो ही सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारा जाएगा. चर्चा यह भी है कि शहर और कैंट में से एक भी सीट पर मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा जाएगा. अगर ऐसा होता है तो जिला मुख्यालय में मुस्लिम समाज का प्रतिनिधित्व शून्य हो जाएगा. जब जिले में ही मुस्लिम नेता नहीं रहेगा तो फिर यहां का मुसलमान निश्चित तौर पर उस पार्टी का दामन थामने को मजबूर हो जाएगा जो जिला मुख्यालय में मुस्लिम नेता को प्रतिनिधित्व देगी. ऐसे में समाजवादी पार्टी के पूर्व महानगर अध्यक्ष और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के वर्तमान महानगर अध्यक्ष व पूर्व डिप्टी मेयर डा. मो. खालिद की राह आसान हो जाएगी. चूंकि डा. खालिद कैंट विधानसभा सीट से प्रगतिशील समाजवादी पार्टी से चुनाव लड़ने जा रहे हैं और सपा के पूर्व महानगर अध्यक्ष भी रहे हैं इसलिए उन्हें मुसलमानों को यह समझाने में तनिक भी देर नहीं लगेगी कि प्रसपा में ही मुसलमानों के हित सुरक्षित हैं. चूंकि डा. मो. खालिद खुद मुस्लिम हैं और उस अंसारी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनकी आबादी मुस्लिम समाज में सबसे अधिक है इसलिए मुस्लिम वोट बैंक का यहां आसानी से बंटवारा हो जाएगा. दूसरी वजह यह है कि जब जिला मुख्यालय में मुस्लिमों को प्रतिनिधित्व ही नहीं मिलेगा तो कोई भी मुस्लिम नेता यहां समाजवादी पार्टी के लिए काम क्यों करेगा? जब नेता को यह स्पष्ट हो जाएगा कि मेहनत करने के बावजूद उसे विधानसभा का टिकट नहीं मिलने वाला तो वह बजाय सपा के दूसरी पार्टियों का दरवाजा खटखटाएगा. नतीजतन जिला मुख्यालय से सपा की मुस्लिम आधारित राजनीति का अंत भी हो सकता है और बिना मुस्लिम वोट बैंक के सपा का क्या हाल होगा इसका अंदाजा खुद ब खुद लगाया जा सकता है.
बहरहाल, अखिलेश यादव का दोबारा मुख्यमंत्री बनने का सपना तभी पूरा होगा जब टिकट का बंटवारा सही तरीके से सोच-समझ कर किया जाएगा. कहीं भेड़ चाल का हिस्सा बनकर अखिलेश यादव अपनी जड़ें खुद ही न काट बैठें.
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