नीरज सिसौदिया, बरेली
समाजवादी पार्टी पिछले कई चुनावों से बरेली महानगर में एक भी विधानसभा सीट नहीं जीत सकी है। वहीं, पिछले दो विधानसभा चुनावों से जिले की सीटों पर भी उसका प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा है। इसकी एक वजह सपा का कमजोर संगठन और भाजपा की हिन्दुत्व आधारित राजनीति भी है। यह सर्वविदित है कि यूपी हो, गुजरात हो, महाराष्ट्र हो या फिर कोई और राज्य, भाजपा हर राज्य में शहरी इलाकों में मजबूत रही है। बरेली की सियासत में भी कुछ ऐसा ही है। यहां भी भाजपा ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में ज्यादा मजबूत दिखाई देती है।
बता दें कि बरेली जिले में 9 विधानसभा सीटें आती हैं। इनमें आंवला, बहेड़ी, भोजीपुर, मीरगंज, फरीदपुर, बिथरी, नवाबगंज, बरेली शहर और बरेली कैंट विधानसभा सीटें शामिल हैं। इनमें सिर्फ बहेड़ी और भोजीपुरा विधानसभा सीट पर ही समाजवादी पार्टी के विधायक हैं, बाकी 7 सीटों पर भाजपा का कब्जा है। बरेली महानगर की बात करें तो यहां सपा उम्मीदवार को कभी जीत नहीं मिली। महानगर में समाजवादी पार्टी ने कभी हिन्दू अध्यक्ष नहीं दिया है। यही वजह है कि महानगर में समाजवादी पार्टी संगठन को भाजपा की तरह मजबूत नहीं कर पाई है। यहां के मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में तो सपा को झमाझम वोट बरसते हैं लेकिन जब हिन्दू बाहुल्य क्षेत्रों की बारी आती है तो सपा औंधे मुंह गिर जाती है। भाजपा में जहां संगठन चुनाव लड़ता है वहीं, कमजोर संगठन होने की वजह से सपा को हमेशा यहां से मजबूत दावेदार की तलाश रहती है। महानगर अध्यक्ष मुस्लिम होने की वजह से हिन्दू समाज में पार्टी वह पकड़ नहीं बना पा रही जो होनी चाहिए। शहर विधानसभा सीट पर मॉडल टाउन, इंदिरा नगर-राजेंद्र नगर जैसे कई इलाके ऐसे हैं जहां वार्ड पार्षद के चुनाव में सपा को उम्मीदवार तक नहीं मिलते और अगर मिलते भी हैं तो वह कभी दूसरे नंबर पर भी नहीं आ पाते।
अब सवाल यह उठता है कि क्या सपा के मौजूदा महानगर अध्यक्ष शमीम खां सुल्तानी या उनके पूर्ववर्ती अध्यक्षों ने सवर्णों के बीच पैठ बनाने के प्रयास नहीं किए? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। महानगर अध्यक्षों ने इसके तमाम प्रयास किए लेकिन शहरी इलाकों में हिन्दू समाज को जोड़ने के लिए पार्टी को भी एक हिन्दू महानगर अध्यक्ष चाहिए क्योंकि मुस्लिम अध्यक्ष होने से कई लोग सपा से भी दूरी बना लेते हैं। यहां शहर विधानसभा सीट पर कायस्थों की बहुतायत है और कैंट सीट पर वैश्य समाज बड़ी तादाद में मौजूद है। ये दोनों बिरादरियां दोनों ही विधानसभा सीटों पर बड़ी तादाद में हैं। यदि इन दोनों समाजों के वोटों को मिला दें तो जीत का समीकरण खुद-ब-खुद बन जाता है। सपा ने भी यहां से कायस्थ और बनिया उम्मीदवार उतारे थे लेकिन चुनावी मौसम में नजर आने वाले ये उम्मीदवार अपने समाज के वोटों को सपा के पाले में लाने में हमेशा नाकाम ही रहे हैं। अगर संगठन मजबूत होता तो सपा को इसका लाभ मिल सकता था।
इसी तरह जिले में मुस्लिम वोटों का बाहुल्य है। जिला अध्यक्ष के कार्यक्षेत्र में 7 विधानसभा सीटें आती हैं। इन सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की अच्छी तादाद है। बहेड़ी और भोजीपुरा की सीट इसका बेहतर उदाहरण हैं जहां सपा ने जीत हासिल की है। ऐसे में मुस्लिम जिला अध्यक्ष पूरे जिले के साथ ही बरेली को भी साध सकता है। सपा को चाहिए कि वह संगठन में इस तरह बदलाव करे कि उसे आगामी विधानसभा चुनाव से पहले संगठन को मजबूत करने में मदद मिले। भाजपा और कांग्रेस महानगर की कमान सवर्ण हिन्दुओं के हाथों में सौंप चुके हैं। अब बारी समाजवादी पार्टी की है।
सुल्तान या सुल्तानी जिले में कर सकते हैं बेहतर काम
पार्टी के पास दो ऐसे बड़े मुस्लिम नेता हैं जो जिला अध्यक्ष के तौर पर संगठन को मजबूत करने का काम औरों की तुलना में बेहतर तरीके से कर सकते हैं। इनमें पहला नाम मीरगंज के पूर्व विधायक सुल्तान बेग का है। सुल्तान बेग के पास संगठन का अच्छा अनुभव है। वह पूर्व सांसद और पूर्व जिला अध्यक्ष वीरपाल सिंह यादव की कमेटी में अहम पदों पर सेवाएं दे चुके हैं।

उस दौर में सपा का प्रदर्शन बेहद शानदार रहा था। यह बात सर्वविदित है कि बरेली के सबसे सफल जिला अध्यक्ष वीरपाल सिंह यादव ही रहे हैं और उनकी कमेटी में जो भी पदाधिकारी रहा उसके पास संगठन को मजबूत करने की रणनीतियों की कोई कमी नहीं है। सुल्तान बेग विधायक भी रह चुके हैं, ऐसे में उनका अनुभव संगठन को नई ऊंचाइयों पर ले जा सकता है। इसी तरह मौजूदा महानगर अध्यक्ष शमीम खां सुल्तानी भी जिले में संगठन को मजबूती प्रदान कर सकते हैं।

सुल्तानी समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य हैं और उनका पूरा जीवन ही संगठन की राजनीति में गुजरा है। वह कई विधानसभा सीटों के प्रभारी भी रह चुके हैं। ऐसे में जिला अध्यक्ष पद के लिए वह एक बेहतरीन विकल्प हो सकते हैं। जिला अध्यक्ष के लिए एक और बड़ा नाम पूर्व मंत्री अता उर रहमान का भी हो सकता है।

अता उर रहमान सियासी रणनीति के महारथी हैं। विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने बहेड़ी विधानसभा सीट जीतकर खुद को साबित कर दिखाया है। फिलहाल वह प्रदेश में अहम जिम्मेदारी निभा रहे हैं। ऐसे में जिले की कमान संभालने में उनकी कोई दिलचस्पी होगी या नहीं यह कहना मुश्किल है लेकिन जिला अध्यक्ष के तौर पर वह एक बेहतर विकल्प हो सकते हैं।
महानगर में राजेश अग्रवाल और गौरव सक्सेना हो सकते हैं बेहतर विकल्प
महानगर में दो हिन्दू नेता ऐसे हैं जो संगठन को मजबूती दे सकते हैं। इनमें पहला नाम वरिष्ठ पार्षद राजेश अग्रवाल का है और दूसरा नाम नगर निगम में विपक्ष के नेता गौरव सक्सेना का है। ये दोनों नेता ऐसे नेता हैं जो भाजपा के गढ़ से चुनाव जीतकर पार्षद बनते आ रहे हैं। दोनों के पास संगठन का अनुभव भी है लेकिन पार्टी की कमान हाथ में न होने के कारण सवर्णों को जोड़ने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। हिन्दू समाज इन दोनों ही नेताओं को व्यक्तिगत तौर पर पसंद करता है। यही वजह है कि गौरव सक्सेना निर्दलीय चुनाव लड़कर भी पार्षद बन गए।

राजेश अग्रवाल बतौर पार्षद पूरे महानगर की लड़ाई लड़ रहे हैं। उन्होंने नगर निगम में व्याप्त भ्रष्टाचार के कई मुद्दों को न सिर्फ उठाया है बल्कि उन्हें अंजाम तक भी पहुंचाया है। वह हाउस टैक्स का मुद्दा लगातार उठाते आ रहे हैं। व्यापारी वर्ग में उनकी गहरी पैठ है। वह कई व्यापारी संगठनों के अध्यक्ष और विभिन्न पदों पर काबिज हैं। उनका व्यक्तित्व उनके विरोधियों को भी बेहद प्रभावित करता है। यही वजह है कि राजेश अग्रवाल आज तक पार्षद का कोई चुनाव ही नहीं हारे। वह मौजूदा महानगर कमेटी में उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी निभा रहे हैं। वह समाज के उस एलीट क्लास के बीच भी गहरी पैठ रखते हैं जो भाजपा का आधार वोट बैंक कहा जाता है।
