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नाटक समीक्षा/विभांशु दिव्याल तर्क द्वारा सत्य की प्रतीति

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‘देखो यह पुरुष ’ धर्मपाल अकेला द्वारा रचित वह नाटक है जिसका मूल संस्करण लगभग 45 वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था और नवीनतम संस्करण अब 2024 में सामने आया है। मैंने इस नये संस्करण को ही मूल संस्करण मानकर पढ़ा तो साथ ही लेखकीय भूमिका सहित अनेकानेक शीर्ष समादृत विद्वानों की समीक्षात्मक टिप्पणियों से भी रू-ब-रू हुआ। ईसा मसीह के जीवन के अंतिम काल खंड पर आधारित, जैसा कि लेखक का भी दावा है, हिंदी में तो यह एकमात्र नाटक है ही शायद विश्व की अन्य भाषाओं में भी इस तरह के किसी नाटक के होने की कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।


इस नाटक पर डा हरिवंश राय बच्चन, नैमिचंद जैन, सव्यसाची, शिवरतन थानवी, जयदेव तनेजा, डा विजय बहादुर सिंह, संजीव, बी.एल.आच्छा, विजय पंडित जैसे विचार वैविध्य वाले लेखकों के साथ-साथ नयी दुनिया, सरिका जैसी पत्र-पत्रिकाओं की समीक्षात्मक टिप्पणियों से गुजरने के बाद जो पहला विचार भीतर घटित हुआ वह यह था कि क्या नाटक के कथ्य, शिल्प, भाषा, उद्देश्य, प्रभाव, पठनीयता, मंचनीयता आदि सभी पहलुओं को छूती हुई सम्यक समीक्षात्मक विवेचनाओं के पश्चात मेरे लिए क्या अलग से कहने को कुछ बचता है।
विजय पंडित कहते हैं – ‘यह नाटक मूलतः ईसा मसीह के जीवन को लेकर है। समग्र जीवन को लेकर नहीं, अपितु उस कालखंड को लेकर है जब उनको क्रूस पर लटकाया गया। पूरे नाटक में ईसा मसीह को क्रूस पर चढ़ाने के पीछे लिये गये निर्णय को लेकर तर्क-वितर्क चलता है। इसके साथ ही इसमें समसामायिक राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों की विवेचना और खुलासा भी इस नाटक के माध्यम से होता है। इस नाटक का सबसे प्रबल पक्ष है इसका वर्तमान संदर्भों से जुड़ाव व प्रासंगिक न्याय व्यवस्था।’ संजीव का कथन है कि ‘प्रस्तुत नाटक द्वारा पाठक दो हजार वर्ष पूर्व घटित ईसा की जरूशलेम में हुई मृत्यु और कारक प्रवृत्तियों, शक्तियों का दृश्य देखते हुए अनायास ही अपने देश-काल-पात्र का चेहरा चीन्हने लगता है।’ शिवरतन थानवी कहते हैं कि ‘ईसा की मृत्यु के कारणों का आपने जो सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक परिदृश्य प्रस्तुत किया है, वह हिंदी साहित्य में या अंग्रेजी साहित्य में भी मुझे आजतक देखने में नहीं आया। आपने आधुनिक जीवन की गुत्थियों को समझने का जो अवसर पाठकों को दिया है वह भी बहुत तर्कपूर्ण और प्रभावकारी है।’ सव्यसाची कहते हंै कि ‘आपकी सशक्त लेखनी द्वारा रचित नाटक यीशु और ईसाई धर्म की एकदम नयी व्याख्या प्रस्तुत करता है जो तर्क संगत है और उदार और मानवीय भी, लेकिन जो धर्म शोषण का संरक्षक बनकर साम्राज्यवाद से जुड़कर संपूर्ण विश्व की निश्छल जनता को शोषण, उत्पीड़न का शिकार बनाकर विश्व युुद्ध के खतरे के रूप में मानवता के अस्तित्व को विनष्ट करने पर तुला है, उसके दिग्भ्रम के शिकार करोड़ों धर्मपरायण लोग आपकी व्याख्या को स्वीकार नहीं करेंगे।’ डा बच्चन कहते हैं कि ‘यहूदा (नाटक का एक पात्र, ईसा का शिष्य) का कथन शक्तिभर काम आवश्यकताभर दाम’ से ऐसा लगता है जैसे मार्क्स को ईसा पर आरोपित किया जा रहा हो।’
इसी क्रम में बी.एल.आच्छा कहते हैं कि ‘ईसा के चरित्र और कथानक को समकाल के वैचारिक संवेदन से जोड़ना सहज नहीं है लेकिन ‘देखो यह पुरळष’ नाटक धर्मपाल अकेला के साहस और वैचारिक मंथन की सुनियोजित परिणति है। … ज्ञान के कारण जीवित मनुष्य के साथ ईश्वरीय एकात्मकता, शिष्यों में सद्विवेक जागृत करने की अनियंत्रित स्वतंत्रता, अपमार्ग में पगे अपराधियों से प्रेम, प्रार्थना-ह्दय की शुद्धता और व्यक्ति सहित घट-घट में ईश्वर की व्याप्ति, आत्मज्ञान से अंहकार का निवारण, धर्मतंत्र के बजाय मानव के प्राणतंत्र की रक्षा, वैयक्तिक प्रभुता के बजाय समानता और प्रेमजनित भावना का विस्तार, भोग और परिगृह के बजाय वंचितों का भरण पोषण, पूंजी की केंद्रीयता के स्थान पर कल्याण की सोद्देश्यता, आंतरिक स्वतंत्रता का आत्मबोध जैसे अनेक मूल्यपरक पक्ष आरोपों की कुंठित समाज दृष्टि पर छाये कोहरे पर युगांतर की रोशनी फैला देते हैं। … लेखक का सोच, उसी भावाकुलता, प्रतिरोध चेतना, आविष्ट तार्किकता और लक्ष्य साधने की छटपटाहट पात्रों में लक्षित अवश्य होती है, पर लेखकीय प्रवेश से संवादों और चरित्रों को आरोपित नहीं करती।
उपरोक्त टिप्पणियां नाटक के कथानक, इसके कालखंड, तात्कालिक परिस्थितियों, व्यवस्थागत अन्याय, धर्म और राजसत्ता के कुटिल संबंध और इस संबंध के कारण आम आदमी का कठिन होता जीवन आदि पर समुचित प्रकाश डालती हैं। इन स्थितियों के विरळद्ध ही ईसा का उदय होता है। ईसा के उपदेश, कार्य, आचरणगत व्यवहार तथा व्यापक उदात्त मानवीय दृष्टि, इनका वर्तमान जीवन स्थितियों के साथ संबंध आदि लगभग सभी पक्षों को इन टिप्पणियों के तहत ले आया गया है। साथ ही नाटक में लेखक अपनी कल्पना से और अपनी वैचारिकता से इतिहास की रिक्तियों को भरने का प्रयास करता है तो उसमें मार्क्सवाद का आरोपण किस तरह हो जाता है यह भी एक टिप्पणी में आता है। और कैसे ईसा प्रणीत अपने समय का मूलभूत परिवर्तनवादी क्रांतिकारी धर्म दो हजार साल बाद किस तरह साम्राज्यवाद, शोषण और अन्याय के संरक्षक के रूप में सामने आता है यह सब भी इन टिप्पणियों में आ गया है। तो इस सबके बाद कहने को क्या रह जाता है?
जब मैंने नाटक को दूसरी बार पढ़कर समाप्त किया तो लगा कि कुछ प्रश्न हैं जो समीक्षकों की दृष्टि से बच निकले हैं। जब भी किसी महान व्यक्ति, किसी पैगम्बर, किसी देवदूत, किसी अवतार के रूप में अभिहित व्यक्तित्व पर चिंतन-मनन होता है तो सहज ही कुछ प्रश्न खड़े होते हैं कि एक व्यक्ति की निर्मिति ईश्वरीय कैसे होती है, वे क्या परिस्थितियां होती है जिनमें यह निर्मिति होती है, व्यक्ति के वे कौन से गुण होते हैं जो इस निर्मिति में सहायक होते हैं और उस व्यक्ति की वह आंतरिक चेतना क्या होती है जो राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक-भौगोलिक आदि बाह्य तत्वों से संक्रियारत होकर अंततः उसे विराटता की ओर ले जाती है। और यह भी कि अंततः मानव जाति इस विराटता के संपर्क में आकर किन परिवर्तनों से गुजरती है, उसकी चेतना का सामाजिक विकास किस तरह होता है और अंततः वह इससे किस तरह लाभान्वित होती है और सबस बड़ी पहेली यह कि ईसा जैसा व्यक्तित्व जो मानव जाति के उद्धारक के रूप में प्रस्तुत होता है, उसे क्यों सूली पर चढ़ा दिया जाता है। उसके समकाल में उसे जो विरोध सहना पड़ा वह विरोध अंततः व्यापक सहमति और स्वीकार्यता के तौर पर एक बड़े धर्म के रूप में कैसे स्थापित हुआ। इन्हीं प्रश्नों ने वह परिप्रेक्ष्य दिया जिनसे जुड़कर मैं अपनी बात कह सकता था।
इन प्रश्नों के कुछ प्रत्यक्ष और कुछ परोक्ष उत्तर इस नाटक में मौजूद हैं। कोई भी महान व्यक्ति अपनी समकालिक धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों की उत्पत्ति होता है। मानवीय करूणाजन्य संवेदनाओं से आप्लावित ईसा ने अपने समय के रोमन साम्राज्य की अन्यायकारी नीतियों, अपने ही यहूदी समाज की मनुष्य विरोधी धार्मिक जड़ताओं, अन्याय और अत्याचारों को अपने जीवन का स्वाभाविक हिस्सा मानकर चलने वाले अंधविश्वासी प्रजाजनों को इन स्थितियों के प्रति जागरूक किया। साथ ही, अन्याय के स्रोतों को पहचानकर उनको नष्ट करने, मानसिक गुलामी में कैद करने वाले धर्मतंत्र के प्रति जन जागरण करने का प्रयास किया। इससेे निहित स्वार्थों वाला राजतंत्र और धर्मतंत्र उनके विरळद्ध खड़ा हो गया और अंततः उसे क्रूस पर ले जाया गया। लेकिन इस मध्य उसके मानव कल्याणकारी विचारों और स्थापनाओं को न्यायोयित और मानवोचित मानने वाले शिष्यों और समर्थकों का जो समूह तैयार हुआ वह व्यापक फैलाव लेकर अंततः मूलभूत परिवर्तनकारी सिद्ध हुआ। लेकिन विडंबनात्मक स्थिति मानव समाज की उस सहज प्रवृत्ति में निहित होती है कि वह यह मानकर चलता है कि मनुष्य का कल्याण ईश्वर द्वारा ही संभव है। अगर कोई मनुष्य कल्याणकारी मार्ग सुझाने में सफल होता है तो उस पर ईश्वरीय तत्व का आरोपण कर दिया जाता है। उसे ईश्वर का अवतार बता दिया जाता है या फिर ईश्वर का दूत। उसके साथ अनेकानेक चमत्कारों को जोड़कर उसे मानवेत्तर दैवीय व्यक्तित्व ओढ़ा दिया जाता है। फिर स्वयं उसके प्रचारित धर्म के भीतर भी उसी तरह के शोषण तंत्र का विकास होता है मूल रूप से जिसके विरळद्ध वह महामानव खड़ा हुआ था। यानी मूल व्यवस्थाओं, सिद्धांतों, स्थापनाओं पर, जो कि मूल रूप से सार्वभौम मनुष्यता की हामी होती हैं, जब रूढ़ियों, मानवीय स्वार्थों, अंध आस्थाओं और झूठे कर्मकांडों की धूल जम जाती है तो धर्म का प्रवाह रळक जाता है और तालाब के ठहरे पानी की तरह उसमें सड़ांध पैदा हो जाती है। मनुष्य की इस चारित्रिक निकृष्टता के कारण एक समय का उदार धर्म क्रूर, उत्पीड़क और दानवीय रूप धारण कर लेता है। हर धर्म की यही परिणति होती दिखती है। अमानवीयता, क्रूरता, हिंसा, आंतक, युद्ध और विनाश धार्मिक आवरण पहनकर मनुष्य जाति के संकट बनते रहे हैं। स्वयं ईसा के धर्म का उदय मूसा द्वारा स्थापित धर्म में आयी विकृत्तियां के सापेक्ष हुआ था।
क्या धार्मिक पतन की इस स्थिति का कोई निराकरण है? इसका एक निराकरण लेखक अकेला नाटक की भूमिका में सुझाते हैं – ईसा को केवल धार्मिक बता देना ईसा की वास्तविक शिक्षाओं को नकारने की एक कुचेष्टा है, जिसका परिणाम यह निकला है कि लोग उसे आश्चर्यकर्म करने वाला ही जानकर आशा लिये बैठे रहते हैं। अगर ईसा की शिक्षाओं का विवेचन-विश्लेषण होता रहता तो तथाकथित स्वर्ग राज्य का सपना अब तक चरितार्थ हो गया होता … मेरी समझ में तो धर्मग्रंथों की सर्वकालिक कुंजियां नहीं होनी चाहिए क्योंकि इससे ग्रंथों की उपादेयता ही अंततः क्षीण होती है। और प्रत्येक युग में यदि धर्म का पुनरीक्षण किया जाता रहे तो धर्म अनुसरणीय रहता है। पर जो धर्म नये परिप्रेक्ष्य में अपने को नहीं परखता वह अपने साथ राष्ट्र को भी ले डूबता है … अंधविश्वास और कुसंस्कार व्यक्ति और राष्ट्र दोनों के लिए घातक सिद्ध होते हैं। अकेला का यह कथन केवल ईसा द्वारा प्रणीत ईसाई धर्म पर ही नहीं बल्कि हर धर्म पर लागू होता है, फिर चाहे वह धरती के किसी भी भूभाग में उत्पन्न धर्म हो और चाहे उसके धर्मग्रंथ किसी भी रूप में लिपिबद्ध हों। धर्म के पुनरीक्षण का तात्पर्य है कि धर्म की व्याख्याओं की निरंतर समीक्षा होती रहे यानी कि उसे तर्कशील आलोचना के दायरे से बाहर न किया जाये, बदलती परिस्थितियों के अनुसार धार्मिक व्यवस्थाओं में बदलाव की गुंजाइश बनी रहे और उसे व्यापक मानवीय हित-अहित की कसौटी पर निरंतर कसा जाता रहे तो मानव कल्याण की दृष्टि से धर्म अधिक उपयोगी हो सकता है और उसे उसके विनाशक चरित्र से बचाकर रखा जा सकता है।
अकेला जी के नाटक ‘देखो यह पुरुष ’ का आस्वादन अन्य अनेक साहित्यिक रसास्वादनों के साथ-साथ इस परिप्रेक्ष्य में भी किया जा सकता है। इस नाटक के बारे में सबसे बड़ी बात यह कि इसके पृष्ठों से गुजरते हुए, इसके पात्रों को समझते हुए, पात्रों के संवादों से उनके निहितार्थ निकालते हुए आप अपने वर्तमान की परिस्थितियों, धार्मिक विचलनों, धर्म और राजनीति के कुटिलतापूर्ण संबंधों, अन्याय और शोषण की व्यवस्थाओं की निर्मितियों और इनके चलते सामान्य व्यक्ति की बढ़ती मुसीबतों आदि का आकलन कर सकते हैं। अगर इसमें अपनी संवेदनात्मक समझदारी विहित करें तो भविष्य की राह के बारे में भी निर्धारण कर सकते हैं।

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