गोरखपुर से आनंद बागी
गोरखपुर में तीन दशकों से जिस गोरक्षपीठ के नाम पर चुनाव जीते जा रहे थे, उसका तिलिस्म कल, 14 मार्च को खत्म हो गया। 30 साल पुराना तिलिस्म मानो टूट गया। योगी आदित्यनाथ के नाम पर जो चुनाव लड़ा गया, उसमें भाजपा हार गई। योगी के लिए यह पहली राजनैतिक पराजय मानी जा सकती है। उपेंद्र दत्त शुक्ल, योगी की पसंद थे या नहीं, यह भी समझना होगा लेकिन सत्ता के गलियारे में जो चीजें चल रही हैं उनमें से एक ध्वनि बहुत साफ-साफ सुनाई पड़ रही कि यह योगी की तो हार है ही, दंभ, अभिमान, अहंकार और कार्यकर्ताओं की घोर उपेक्षा वाली नीयत की भी हार है। आने वाले दिनों में इंजीनियर प्रवीण कुमार निषाद गोरखपुर के लिए क्या कर सकेंगे, यह तो दूर की कौड़ी है लेकिन फिलवक्त गोरखपुर में तो शोक है, कालीदास मार्ग पर शोक है और कई मायनों में पीएमओ में भी दुख के काले-काले बादल छाये हुए हैं। ये बादल 19 में दूर हो सकते हैं बशर्ते भाजपा अपने मूल अर्थात काडर को मजबूत कर उनमें पुराना आत्मविश्वास जगाए, आपसी फूट को खत्म करे। हालांकि, यह भी दूर की कौड़ी है।
यह बात ध्यान में रखनी होगी कि भाजपा गोरखपुर में हारी क्यों। वह भी तब, जबकि योगी 16 चक्रों में वहां चुनाव प्रचार कर चुके थे। यह भी समझना होगा कि मत प्रतिशत ज्यादा होने के बावजूद वो कौन से कारण थे जिन्होंने तमाम विपक्षी दलों को खुल कर वोट दिये? जवाब इस सवाल का भी खोजना होगा कि 30 साल से भाजपा का अभेद्य किला रहा गोरखपुर में इस बार इतनी कम वोटिंग क्यों हुई? यह सवाल भी तारी है कि भाजपा का कैडर इस बार अनमना सा क्यों रहा? पूछा यह भी जा रहा है कि जो भाजपा का कैडर लगातार अपने अभियान में रमा रहता है, वह इस बार क्यों विमुख हो गया-अपने अभियान से? दरअसल, इन सवालों का जवाब ही हार की असली वजह को रेखांकित करेगा। फिर, आपको यह भी देखना होगा कि केंद्र और सूबे में भगवा सरकार होने के जो फायदे मिलने थे, वह गोरखपुर को मिले कि नहीं? आज के दौर में, जब सारा कुछ बहुत तेजी से बदल रहा है, लोगों में इंतजार करने की क्षमता का धीरे-धीरे ह्रास हो रहा है, लोग जरूर जानना चाहते हैं कि एम्स का क्या हुआ? फर्टिलाइजर का क्या हुआ? चीनी मिलों से धुआं क्यों नहीं निकला? साल भर का जश्न मनाने वाले योगी आदित्यनाथ की सरकार ने गोरखपुर के किसी एक शख्स को भी नौकरी क्यों नहीं दी?
अगर आप ईमानदार विश्लेषक हैं तो यह सवाल जरूर मन में कौंधेगा कि आखिर गोरखपुर एक साल में जहां था, वहीं क्योंकर खड़ा है? यह शहर उदास-सा क्यों है? इस शहर का विकास क्यों नहीं हो रहा है? जो योजनाएं शुरू की गईं, वह आगे क्यों नहीं बढ़ीं? रामगढ़ताल में फिर से सिल्ट क्यों जमा हो रहा है? रामगढ़ताल में नौकाएं क्यों नहीं चल रही हैं? तारामंडल का पूरा इलाका क्योंकर अब तक नगर निगम क्षेत्र में शामिल नहीं किया गया? अनगिन सवाल हैं। जवाब भी होंगे, इसमें कोई शक नहीं। फिर भी, लाख रुपये का सवाल यह कि साल भर में हमने गोरखपुर के लिए किया क्या? राज्य सरकार की योजनाओं का गोरखपुर में कोई असर क्यों नहीं दिख रहा है? उससे भी बड़ी बात-जो भाजपा का काडर है, वह क्यों सुस्त है? एक हुलास मन में क्यों नहीं था कि उपेंद्र दत्त शुक्ल को चुनाव जीताना है? क्या यह ओवरकांफिडेंस पहले से था कि शुक्ला जी चुनाव जीत ही जाएंगे? शायद।
केंद्र और यूपी में जिस भी एक दल या पार्टी की सरकार होती है, उनसे उम्मीदें बढ़ जाती हैं। यह बेहद स्वाभाविक है। अब तक राज्य सरकारें यही आरोप लगाती रही हैं कि केंद्र सरकार उनकी योजनाओं के लिए पैसे नहीं देती। अब भाजपा की सरकार केंद्र में भी है, यूपी में तो है ही। यहां कौन सा बहाना? यहां बहाना चलेगा भी नहीं। अब तक कि दिखने वाली सियासी अदूरदर्शिता यही साबित करती है कि भाजपा आज भी विपक्ष की राजनीति के लिए ही सर्वथा योग्य है। साल भर बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में भी यही गठबंधन एका के साथ लड़ा तो भाजपा के लिए अच्छे दिन तो दिवास्वप्न ही साबित होंगे।