नई दिल्ली : कहते हैं इतिहास खुद को दोहराता है और इतिहास से सबक न लेने वाले अक्सर मिट्टी में मिल जाते हैं. ऐसा ही कुछ इन दिनों हिन्दुस्तान की सियासत में देखने को मिल रहा है. जहां एक तरफ दम तोड़ती कांग्रेस को संजीवनी मिल गई है वहीं दूसरी तरफ अहंकार के आसमान पर बैठी भाजपा के अरमानों का महल दरकने लगा है.
अब जरा इतिहास पर गौर फरमाया जाये. राजीव गांधी की हत्या के बाद Sonia Gandhi ने सियासत से तौबा कर ली थी और कांग्रेस लावारिस सी हो चुकी थी. वर्ष 1996 में लोकसभा चुनाव हुए और पीवी नरसिम्हा राव सत्ता से बेदखल हो गए. कांग्रेस का सूरज अस्त हो चला था और भगवा ब्रिगेड का उदय हो रहा था. अटल बिहारी वाजपेयी सत्ता की सीढ़ियां चढ़ चुके थे. पहले 13 दिन की सरकार बनी, फिर 13 महीने और फिर पूरे पांच साल तक अटल बिहारी ने देश की कमान संभाली. 1996 की हार के बाद कांग्रेसियों की समझ में आ चुका था कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस का कोई वजूद नहीं.
फिर शुरू हुआ Sonia Gandhi की मान मनौव्वल का दौर. 1998 में कलकत्ता में सोनिया गांधी ने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की और 62 दिन बाद उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया. बस यहीं से दम तोड़ती कांग्रेस में नई जान आ गई. Sonia Gandhi का नेतृत्व कांग्रेस के लिए वरदान साबित हुआ और भगवा ब्रिगेड की उल्टी गिनती शुरू हो गई. लगभग 6 वर्षों के कार्यकाल में सोनिया गांधी ने पति और सास की हत्या की दुहाई देकर लोगों की जमकर सहानुभूति बटोरी. एक दौर था जब कई घरों में लोग राजीव गांधी की तस्वीर रखकर उनकी पूजा करते थे लेकिन वक्त के साथ हालात बदल चुके थे. अटल बिहारी वाजपेयी एक सशक्त व्यक्ततित्व वाले नेता थे. ऐसे में उन्हें हराना आसान नहीं था.
Sonia Gandhi की रणनीति काम कर गई और 2004 के लोकसभा चुनाव कांग्रेस ने सहानुभूति की लहर में जीत लिये. वामदलों का कांग्रेस को पूरा समर्थन मिला और केंद्र पर कांग्रेस काबिज हो गई. ये वो दौर था जब सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाया जाना लगभग तय था लेकिन भाजपा ने उनके विदेशी मूल का मुद्दा उठाते हुए विरोध तेज कर दिया. उमा भारती और सुषमा स्वराज जैसी भाजपा नेत्रियों ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर एक विदेशी महिला को भारत का प्रधानमंत्री बनाया गया तो वह अपना सिर मुंडवा लेंगी और बिस्तर पर सोना बंद कर देंगी. वो दौर सोनिया गांधी की राजनीतिक परीक्षा का दौर था.
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सोनिया ने सूझ बूझ से काम लिया और पीएम की कुर्सी को यह कहते हुए ठोकर मार दी कि उन्हें कुर्सी का कोई लालच नहीं है. फिर मनमोहन सिंह पीएम बने और कांग्रेस ने दस वर्ष तक राज किया. इसके बाद सत्ता परिवर्तन हुआ और कांग्रेस ने राहुल गांधी को आगे किया. राहुल को पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी भी सौंपी गई लेकिन शायद राहुल की किस्मत में उपलब्धियों का पन्ना ही नहीं लिखा गया. नाकामियों के अलावा राहुल गांधी के खाते में कुछ भी दर्ज नहीं हो सका.
अब इसे सोनिया गांधी की किस्मत कहें या कुछ और कि उनके दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभालते ही दम तोड़ती कांग्रेस में जान आ गई. हरियाणा में डूबती कांग्रेस किनारे लग गई और महाराष्ट्र में भी सम्मानजनक स्थिति में पहुंच गई. पुराने कांंग्रेसी दिग्गज जो राहुल ब्रिगेड से परेशान थे, सोनिया के आने से फिर सक्रिय हो गए. हरियाणा में हुड्डा ने कमाल दिखाया और दिल्ली की कमान भी 72 साल के सुभाष चोपड़ा के हाथों में सौंप दी गई. यह कांग्रेस के लिए संघर्ष का दौर है. लेकिन जिस ऊर्जा से दोबारा कांग्रेस वजूद की लड़ाई लड़ती नजर आ रही है, उसे देखकर लगता है कि जल्द ही उसका संघर्ष कोई न कोई गुल जरूर खिलाएगा.
हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के नतीजे जो ऊर्जा लेकर आए उसका भरपूर लाभ उठाने की कवायद सोनिया गांधी ने शुरू कर दी है. दो नवंबर को सोनिया ने पार्टी पदाधिकारियों की बैठक बुलाई है. इसके बाद मोदी सरकार के खिलाफ देश में बन रहे माहौल को भुनाने के लिए देशव्यापी आंदोलन शुरू किया जाएगा. महाराष्ट्र में कांग्रेस के चव्हाण ने बीजेपी का संकट बढ़ाने वाला बयान देते हुए कह दिया है कि अगर शिवसेना प्रस्ताव रखती है तो वह भी सरकार बनाने की सोच सकते हैं. यानि कांग्रेस अब पूरी तरह आक्रामक रुख अख्तियार कर चुकी है. कांग्रेस अगर अपने इसी रुख पर कायम रहती है तो निश्चित तौर पर विभिन्न राज्यों में आने वाले विधानसभा चुनावों और आगामी लोकसभा चुनावों तक तस्वीर कुछ और ही होगी. भगवा ब्रिगेड के लिए यह मंथन का वक्त है. अगर कांग्रेस यूं ही हमलावर रही तो वह दिन दूर नहीं होगा जब भाजपा अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही होगी. शायद कांग्रेस का उद्धार सोनिया गांधी के हाथों ही लिखा है. यही वजह है कि अब दम तोड़ती कांग्रेस एक बार फिर जीवंत हो उठी है.