नीरज सिसौदिया, बरेली
वो न तो मंत्री है न ही कहीं का विधायक, न अरबों का मालिक है और न ही टाटा, बिरला या अंबानी के घराने से ताल्लुक़ रखता है. फिर भी वो गरीबों को सिर्फ पांच रुपये में भोजन उपलब्ध कराता है और सिर्फ दो रुपये पूरी दुनिया को आरओ का शुद्ध पानी मुहैया करा रहा है. सुनने में भले ही थोड़ा अजीब लगता हो पर यह सच है. जी हां, हम बात कर रहे हैं बरेली के दिलीप कुमार अग्रवाल की. दिलीप अग्रवाल यह काम साल में दो-चार बार नहीं करते बल्कि पिछले चार से रोजाना लगातार करते आ रहे हैं. जिला अस्पताल के गेट से प्रवेश करते ही बाएं हाथ पर स्थित मंदिर में रोजाना सुबह लगभग 11 बजे से एक बजे तक दिलीप अग्रवाल आपको खाने के पैकेट बांटते नजर आ जाएंगे. आखिर दिलीप अग्रवाल कौन हैं और क्यों वह अपना काम काज छोड़ कर रोजाना जरूरतमंदों को खाना बांटने आ जाते हैं? इसके पीछे की कहानी बेहद दिलचस्प है.
दिलीप बताते हैं, ‘मैं बरेली के बड़ा बाजार के कन्हैया टोला का रहने वाला हूं. एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मा और पला-बढ़ा हूं. मेरे पिता स्व. राम औतार अग्रवाल उर्फ लाला रोडवेज में चालक प्रशिक्षक के पद पर तैनात थे. मेरा बचपन भी उसी तरह बीता जैसा कि एक मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चे का बीतता है. कभी तमन्नाएं पूरी हो जाती थीं तो कभी मन मारना पड़ता था. मैं सुनारी के औजारों का काम करता हूं.’
सुनारी के औजारों का काम करने वाले दिलीप अग्रवाल के मन में गरीबों के प्रति यह सेवाभाव अचानक से कैसे पैदा हो गया? पूछने पर दिलीप बताते हैं, ‘लगभग चार साल पहले मेरे एक परिचित जिला अस्पताल में भर्ती थे. मैं उन्हें देखने के लिए आया था लेकिन यहां का जो आलम था उसे देखकर मेरी रूह कांप उठी. मरीजों और उनके तीमारदारों को एक-एक निवाले के लिए तरसते देखा तो मन में ख्याल आया कि इनके लिए कुछ करना चाहिए. बस उसी दिन से ठान लिया कि इनके लिए कुछ जरूर करना है. भगवान ने हिम्मत बढ़ाई और नौ अप्रैल 2017 का दिन था जब हमने पहली बार भोजन बांटा.’ दिलीप ने अकेले ही यह सफर शुरू किया था या इस राह पर उन्हें कोई हमसफर भी मिला था. अब उनके कुनबे में कितने साथी जुड़ चुके हैं? इस बारे में दिलीप कहते हैं, ‘भोजन वितरण की शुरुआत हम दो लोगों ने मिलकर की थी. एक मैं और दूसरे मेरे ममेरे भाई सौरभ अग्रवाल जो इस वक्त गुड़गांव (गुरुग्राम, हरियाणा) में रहते हैं. सच कहूं तो सौरभ की वजह से ही यह शुरुआत हो सकी थी. उन्होंने ही अपने दोस्तों से पैसे इकट्ठे करवाए थे जिसकी वजह से मैं यह सेवा कार्य शुरू कर पाया. इसके बाद हमें खाना बांटते देख लोग खुद ब खुद आकर हमसे जुड़ने लगे. इसके बाद हमने समर्पण एक प्रयास नाम से एक संस्था बनाई. जिसमें हमारे संरक्षक विष्णु अग्रवाल, उपाध्यक्ष निकुंश अग्रवाल निक्की, निकुंज अग्रवाल, संदीप अग्रवाल आदि जुड़े. शुरू में हम सिर्फ आठ-दस लोग ही थे पर आज 45 लोग हमारे साथ जुड़ चुके हैं.’
दिलीप अग्रवाल की संस्था की ओर से प्रतिदिन लगभग डेढ़ सौ से दो सौ लोगों को भोजन कराया जाता है. इसमें प्रतिदिन का खर्च लगभग तीन हजार रुपये से भी अधिक होता है. इतनी बड़ी राशि वह कहां से लाते हैं? पूछने पर दिलीप कहते हैं, ‘ हमारी संस्था से जो लोग जुड़े हैं वे प्रतिमाह पांच सौ से लेकर दो हजार रुपये तक की आर्थिक सहायता करते हैं. जिससे यह खर्च निकल आता है. साथ ही अगर कोई भी शहरवासी अपने परिजन के जन्मदिन अथवा पुण्यतिथि पर गरीबों को भोजन बांटने का इच्छुक होता है तो संस्था उससे उसकी इच्छा के अनुसार आर्थिक मदद लेती है और भोजन मुहैया कराती है. अगर कोई शख्स बिना पैसे दिए भी भोजन वितरित करने का इच्छुक होता है तो संस्था उससे कोई शुल्क नहीं लेती.’
जिला अस्पताल में इस सेवा कार्य के लिए प्रशासन का भी उन्हें पूरा सहयोग मिलता है. पूर्व जिलाधिकारी वीरेंद्र कुमार सिंह तो खुद संस्था से बतौर संरक्षक जुड़े रहे. सीएमओ, सीएमएस, एसडीएम आदि अधिकारी स्वयं आकर यहां भोजन वितरित कर चुके हैं. समाजसेवा के इस काम के लिए दिलीप गरीबों से पांच रुपये शुल्क क्यों लेते हैं? जब वह समाजसेवा ही कर रहे हैं तो फिर पांच रुपये लेने की क्या जरूरत है? इसके पीछे दिलीप जो वजह बताते हैं वह बेहद दिलचस्प है. वह कहते हैं, ‘जब हमें कोई चीज मुफ्त में मिलती है तो हमें उसकी कद्र नहीं होती और हम उसे बर्बाद करने से भी गुरेज नहीं करते. गरीब के लिए पांच रुपये भी बड़ी रकम होती है. जब वह पांच रुपये देकर भोजन लेता है तो निश्चित तौर पर उसे बर्बाद नहीं करता. इससे भोजन की बर्बादी नहीं होती. वहीं, कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो स्वाभिमानी होते हैं. गरीब होने के बाद भी वे किसी से मुफ्त में कुछ लेने को भीख मांगने के समान मानते हैं. ऐसे में जब हम उनसे पांच रुपये लेते हैं तो उन्हें सस्ते में अच्छा भोजन भी मिल जाता है और उनका सम्मान भी बरकरार रहता है. यही वजह है कि हम पांच रुपये कीमत वसूल करते हैं. हालांकि त्योहारों पर यह सुविधा नि:शुल्क भी मुहैया कराई जाती है.’
समर्पण एक प्रयास संस्था की ओर से पिछले चार साल से लगातार भोजन वितरित किया जा रहा है. क्या इसके अलावा भी संस्था कोई समाजसेवा का कार्य करती है? आगे उनकी क्या योजनाएं हैं? पूछने पर दिलीप बताते हैं, ‘दो साल से हम सर्दियों में लोगों को गर्म कपड़े, कंबल और मोजे भी बांट रहे हैं. नए कंबल और गर्म कपड़े बांटने के साथ ही हम लोगों से इकट्ठा किए गए कपड़े भी लोगों को उपलब्ध कराते हैं.’
भविष्य की योजना के बारे में पूछते ही दिलीप की आंखों में एक चमक आ जाती है. वह बड़ी ही तत्परता से जवाब देते हैं. कहते हैं, ‘मेरा सपना गरीबों के लिए एक चैरिटेबल अस्पताल बनाने का है. जिसमें गरीबों को मुफ्त में बेहतर चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई जा सके. इस पर संस्था के सदस्यों के साथ मंथन किया जा चुका है. जल्द ही भूमि चयनित कर खरीद ली जाएगी और अस्पताल निर्माण शुरू करा दिया जाएगा. साथ ही एक बुजुर्गों के लिए एक आश्रम भी बनाना चाहता हूं जहां अपनों के सताए और बेघर बुजुर्गों को रहने के लिए छत और दो वक्त की रोटी मिल सके.’
राजनेता हमेशा खुद को सबसे बड़ा समाजसेवी बताते हैं लेकिन दिलीप के साथ इसके एकदम उलट हुआ. दिलीप बताते हैं, ‘ शुरुआत में जब आर्थिक दिक्कतें आई तो हम कई नेताओं के पास गए लेकिन एक ने भी हमारी कोई मदद नहीं की. उल्टा एक राजनीतिक दल के नेता तो रोज यहां आ जाते थे और हमारी सेवा को अपनी सेवा बताकर फेसबुक पर फोटो तक अपलोड कर देते थे. फिर हमने उन नेताजी यहां से हटवा दिया. इसके बाद से हमने राजनेताओं से मदद मांगना ही बंद कर दिया.’