इंटरव्यू

अधिकारों की लड़ाई अकेली लड़ती एक सिपाही, मिलिये प्रमिला सक्सेना से…

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नीरज सिसौदिया, बरेली
जिंदगी ने हर कदम पर उसकी अग्निपरीक्षा ली पर उसने भी हिम्मत नहीं हारी. वह महज 17 साल की थी जब बॉम्ब ब्लास्ट में उसने अपने माता-पिता और एक भाई को हमेशा के लिए खो दिया था. 17 साल की उस बेबस मासूम के सिर पर छोटे भाई की जिम्मेदारी का बोझ था लेकिन उसकी तकदीर में शायद अपनों का प्यार लिखा ही नहीं था. मां-बाप को भगवान ने छीन लिया और अपनों को हालात ने दूर कर दिया. मुश्किलों से उसने दोस्ती कर ली और निकल पड़ी बेबसों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए. वह न तो किसी नामी गिरामी सामाजिक संस्था से जुड़ी है और न ही बहुत अमीर है. फिर भी समाज को एक नई दिशा देने में लगी है. कभी किसी गरीब का पेट भरती है तो कभी किसी बेबस के हक की लड़ाई लड़ती है. कभी जिंदगी और मौत से जूझ रहे लोगों के लिए रक्त इकट्ठा करती है तो कभी घर खर्च के पैसों से पौधे लगाकर पर्यावरण बचाने का संदेश देती है. समाज के प्रति उसके इसी समर्पण को देखते हुए विगत आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर मानव सेवा क्लब की ओर से उसे सम्मानित किया गया. उस शख्सियत का नाम प्रमिला सक्सेना है.


प्रमिला के संघर्ष की कहानी बेहद दर्दनाक है. राह की इन्हीं मुश्किलों ने ही उसे आज इतना मजबूत बना दिया है कि वह दूसरों के काम आ रही है. अतीत के पन्ने टटोलने पर प्रमिला कहती हैं, ‘मेरा जन्म वर्ष 1968 में पंजाब के पठानकोट शहर में हुआ था. वैसे तो हम मूल रूप से बरेली शहर के बमनपुरी मोहल्ले के रहने वाले हैं लेकिन मेरे पिता आर्मी में थे, इसलिए मेरा बचपन अलग-अलग शहरों में बीता. वर्ष 1985 की बात है. उस वक्त मेरे पिता की पोस्टिंग जम्मू के नगरौटा में हुई थी. मेरा एक भाई, पापा और मम्मी ट्रेन से नगरौटा से बरेली आ रहे थे लेकिन उनकी ट्रेन पर आतंकी हमला हो गया था और उस बॉम्ब ब्लास्ट में उनकी मौत हो गई. उसके बाद अपने साथ-साथ छोटे भाई की जिम्मेदारी भी मुझ पर आ गई.’


माता-पिता की मौत के बाद प्रमिला की जिंदगी धीरे-धीरे पटरी पर लौटने लगी थी. पिता की मौत के बाद सरकार की ओर से इतना आर्थिक सहयोग मिल चुका था कि दोनों भाई बहन हंसी खुशी जिंदगी गुजार रहे थे. प्रमिला ने बीएड किया और नौकरी भी कर ली. पिता की मौत के लगभग दस साल बाद प्रमिला की शादी मुरादाबाद के युवक से बड़ी ही धूमधाम से हुई मगर प्रमिला को शादी रास न आ सकी. प्रमिला बताती हैं, ‘शादी के बाद सब कुछ ठीक चल रहा था पर कुछ समय बाद हमारे बीच दूरियां बढ़ने लगीं. तब से मैं अकेली ही जिंदगी के फासले तय कर रही हूं.’


खुद इतने दुखों को सहने के बाद प्रमिला ने समाजसेवा का रास्ता चुना लेकिन अधिकारों की इस लड़ाई को भी वह अकेली ही लड़ रही है. उसकी समाज सेवा न तो गरीबों को कम्बल बांटते हुए तस्वीरें खिंचवाने वाली है और न ही एनजीओ के नाम पर आलीशान पार्टियां करने वाली. दिलचस्प बात यह है कि पिछले लगभग साढ़ेे पांंच वर्षों से प्रमिला ने अन्न का एक दाना नहीं खाया, इसकी क्या वजह रही. पूछने पर प्रमिला कहती हैं, ‘मेरी लड़ाई एक तरफ समाज के लिए है तो दूसरी तरफ भगवान से भी है. इसीलिए मैंने अन्न त्याग दिया है और फिलहाल फलाहार पर ही जीवन गुजार रही हूं. मैंने नमक भी त्याग दिया है.’


प्रमिला की समाजसेवा का तरीका सबसे जुदा है. वह कोई लक्ष्य तय नहीं करती. उसे जब भी जहां भी अन्याय नजर आता है वह लड़ने लगती है. जहां कहीं भी कुछ भी गलत होता है तो विरोध करती है. गुड़िया गुड़िया के नाम से एक फेसबुक पेज भी चलाती हैं और लोगों की काउंसिंलिंग भी करती हैं. प्रमिला ने अब तक समाजसेवा के क्षेत्र में कौन कौन से उल्लेखनीय काम किये हैं, वह कितने लोगों की किस तरह से मदद कर चुकी हैं, इसका कोई भी रिकॉर्ड प्रमिला के पास नहीं है. वह कहती हैं, ‘मैं ऐसा कोई भी रजिस्टर मेंटेन नहीं करती हूं. मैं यह सब न तो चंदा इकट्ठा करने के लिए करती हूं और न ही किसी प्रकार की सरकारी मदद पाने के लालच में. इसलिए न तो मैं लोगों की मदद करते वक्त कोई फोटो खिंचवाती हूं और न ही उसका हिसाब रखना जरूरी समझती हूं. मेरा मकसद सिर्फ पीड़ितों को उनके अधिकार दिलाने और अधिकारों के प्रति जागरूक करना है. मैं कभी किसी भंडारे का आयोजन नहीं करती पर कोई गरीब भूखा नजर आता है तो उसका पेट जरूर भरती हूं. मैं चाहती हूं कि तकलीफों के जिस समुंदर से होकर मुझे गुजरना पड़ा है किसी और को न गुजरना पड़े. इसलिए जिस किसी को भी मेरी जरूरत होती है मैं उसके काम आने का प्रयास करती हूं.’
प्रमिला पिछले करीब वर्षों से पर्यावरण संरक्षण के साथ ही पौधरोपण अभियान भी चला रही हैं. पति से उन्हें मासिक खर्च के जो पैसे मिलते हैं उन्हीं से पौधे खरीदकर लगा देती हैं.

प्रमिला की सोच सिर्फ जीवन रहते ही समाजसेवा करने की नहीं है वह मरने के बाद भी लोगों के काम आना चाहती हैं. इसलिए तीन साल पहले उन्होंने एसआरएमएस भोजीपुरा में अपनी बॉडी भी डोनेट कर दी है. वह लिखने की शौकीन हैं और युवाओं को सही राह दिखाने का प्रयास लगातार कर रही हैं. फिलहाल अपने उनसे दूर हैं लेकिन पूरा समाज ही उनका परिवार बन गया है. प्रमिला का सफर अब भी जारी है और आत्मनिर्भर बनकर वह आर्थिक रूप से भी बेबसों को सक्षम बनाना चाहती हैं. उनके पास सिलाई, कढ़ाई जैसे कई हुनर हैं जिसे वह लोगों को सिखाना चाहती हैं.

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