मां के आंचल की छाया में,
चैन की नींद सो जाते थे।
मां कब जागी मां कब सोई,
हम यह भी जान न पाते थे।
दूध लिये बस आगे पीछे,
सौ नखरे भी उठाती थी।
“चूहा खाना खा जायेगा,’
यह कहकर रोज खिलाती थी।
किसी बात से डर लगता था,
झट माँ की गोद में छिपते थे।
इससे बढ़कर क्या दुनिया में,
हम अब भी नहीं समझते थे।
हम रोये तो मां रोई है,
हम हंस दें तो बलिहारी थी।
ममता की निर्मल गंगा सी,
उसके उर से निर्झारी थी।
तेज ज्वर से तपता माथा,
मां के हाथ सहलाते थे।
क्षण भर में ही भूल वेदना,
हम शान्त मन सो जाते थे।
कैसे भूले उस मां को जो,
अटल सत्य जैसी खड़ी रही।
हर दुःख से वह हमें बचाती,
हर मुश्किल में डटी रही।
“मैं हूँ न’ का बोध कराती,
आज नहीं है, वह चली गईं।
आशीषों से भरी पोटली,
सारी ही हम पर उलट गई।
मां की ममता कितनी गहरी,
सागर भी नाप नहीं पाया।
उसका आंचल कितना विस्तृत,
गगन कभी पार नहीं पाया।
पर्वत से ऊंची महिमा है,
हिमगिरि भी शीश झुकाते हैं।
भोले बाबा के डमरू के ,
सब नाद यही समझाते हैं।
मां के चरणों की गंगा में,
चारों तीरथ भी मिलते हैं।
इनका वन्दन करने से ही,
स्वर्ग यहीं पर मिलते हैं।
कान्हा जैसा ही सुख हमने,
इसी की गोद में पाया था।
हर मां में थी यशोदा मैय्या,
आंगन स्वर्ग समाया था।
इसी गोद का सुख लेने हित,
खुद देव धरा पे आये थे।
मानव रूप धरा देवो ने ,
ममता की गोद समाये थे।
ऊपर बैठा रचे विधाता ,
नीचे बैठी जनम की दाता।
जो वह करता उससे ज्यादा
ही कष्ट उठाती है माता
हम तेरे ऋण से मुक्त नहीं,
शत -कोटि तुम्हारा वन्दन है।
हर युग में ही नाम तुम्हारा,
देवों का ही कीर्तन है।
न वह सुख है न वह स्वर्ग है,
बस वे यादें ही बाकी हैं।
स्वार्थ से जलते हुए जग में
वे शीत- फुहारें काफी हैं
लेखिका-प्रमोद पारवाला बरेली (उत्तर प्रदेश)