नीरज सिसौदिया, बरेली
कोरोना महामारी के मैनेजमेंट में नाकामी व पश्चिम बंगाल विधानसभा और यूपी पंचायत चुनावों में करारी शिकस्त झेलने के बाद भाजपा हाईकमान और संघ के पदाधिकारी अपना मानसिक संतुलन खोते हुए नजर आ रहे हैं. पुरानी कहावत है, ‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि’. कुछ ऐसा ही इन दिनों भाजपा के साथ भी हो रहा है. यूपी में वर्ष 2022 में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं. अब जबकि चुनाव में कुछ महीने ही शेष रह गए हैं, भाजपा में सियासी उठापटक तेज हो गई है. यह कवायद निचले स्तर पर होती तो पार्टी को इसका लाभ मिल सकता था लेकिन मुख्यमंत्री को ही बदलने को लेकर की जा रही कवायद भाजपा को ले डूबेगी. ऐसा करके भाजपा अपनी सरकार की नाकामी पर खुद ही मुहर लगा देगी. मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ को पदमुक्त करने से जनता में सीधा-सीधा यह संदेश जाएगा कि योगी आदित्य नाथ न सिर्फ खुद जन आकांक्षाओं पर खरे उतरने में नाकाम साबित हुए हैं बल्कि भाजपा यूपी का सिंहासन संभालने में नाकाम साबित हुई है. वर्षों बाद सत्ता का वनवास खत्म करने वाली भाजपा अपनी नाकामी का प्रमाण पत्र खुद ही दे देगी. अगर मुख्यमंत्री का चेहरा बदला जाएगा तो जनता इसका कारण जरूर पूछेगी. इसका सिर्फ एक ही जवाब होगा कि योगी आदित्य नाथ सही तरीके से सरकार नहीं चला पाए और जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके इसलिए उन्हें हटा दिया गया. योगी आदित्य नाथ की नाकामी का सीधा सा अर्थ भाजपा की नाकामी के रूप में सामने आएगा. भाजपा हाईकमान शायद यह भूल गया है कि योगी आदित्य नाथ से पार्टी का वजूद नहीं है बल्कि भाजपा ने योगी आदित्य नाथ को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया था. यानि भाजपा ने गलत फैसला किया था जिसका खामियाजा पिछले चार साल से जनता भुगत रही है. जब सत्तारूढ़ पार्टी खुद ही यह संदेश देगी तो क्या वह उम्मीद कर सकती है कि आगामी विधानसभा चुनाव में जनता उसे फिर से गलत फैसला करने का मौका देगी. बिल्कुल नहीं, यूपी की जनता इतनी बेवकूफ नहीं है कि पार्टी गलतियों पर गलतियां करती रहे और वह मौका देती रहे.
इतिहास गवाह है कि कभी कांग्रेस का यूपी की सत्ता पर एकछत्र राज हुआ करता था लेकिन आज वह यूपी के सियासी पटल पर अपनी मौजूदगी तक दर्ज नहीं करा पा रही है. फिर जनता ने भाजपा को भी मौका दिया लेकिन राजनाथ सिंह जैसे नेता भी यूपी की सत्ता को बरकरार रखने में नाकाम साबित हुए थे. अंतत: यूपी ने स्थानीय दलों को चुना और बसपा व सपा ने दशकों तक राज किया. यहां भाजपा कांग्रेस का विकल्प क्यों नहीं बन सकी? पिछली बार मोदी लहर में जनता बह गई और भाजपा को सत्ता सौंप दी गई. इस दौरान सरकार से कुछ गलतियां हुईं तो कुछ अच्छे कार्य भी हुए. कई जगह वर्षों से लटके काम पूरे हुए तो गुंडाराज निम्न स्तर तक पहुंचाने में भी योगी सरकार का महत्वपूर्ण योगदान रहा. सपा सरकार में ये गुंडे बेलगाम हो गए थे, इस बात को नकारा नहीं जा सकता.
सेहत के मोर्चे पर जरूर योगी सरकार कमजोर नजर आई लेकिन उसे पूरी तरह नाकाम नहीं कहा जा सकता. सबसे ज्यादा फजीहत नदियों के किनारे लगे लाशों के ढेरों और कोविड अस्पतालों की लूट खसोट ने कराई. इसकी मुख्य वजह यह रही कि ज्यादातर कोविड अस्पताल भाजपा नेताओं, संघ के करीबियों या उनके चहेतों के बनाए गए. सत्ता पक्ष से जुड़ाव होने के कारण ये अस्पताल बेखौफ होकर लूटपाट करने लगे जिसका ठीकरा योगी आदित्य नाथ पर फूटा. योगी के मंत्री सतीश द्विवेदी ने तो भ्रष्टाचार का खुला खेल खेला. भाई की गलत तरीके से नौकरी लगाने का काला कारनामा तो सामने आया ही, करोड़ों की जमीनें कौड़ियों के दामों में खरीदकर भी वह विपक्षियों के निशाने पर आ गए.
सुरेश खन्ना, चौधरी भूपेंद्र सिंह और आशुतोष टंडन जैसे मंत्रियों के नाम भी भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने के मामलों में सामने आते रहे हैं.
सबसे बड़ी शिकायतें विधायकों की ओर से रहीं. अफसरशाही पर योगी आदित्य नाथ ने सीधे अपना नियंत्रण रखा. यही वजह रही कि अफसर बेलगाम हो गए. विधायकों को उन्होंने एक आम आदमी की तरह ही ट्रीट किया. जनता के छोटे-मोटे काम कराने में भी विधायक नाकाम साबित हुए और क्षेत्र में उनकी पकड़ कमजोर होती गई. योगी की सख्ती पार्टी नेताओं के लिए मुसीबत का सबब बन गई. अपनी सरकार आने पर जो सपने पूरा करने का अरमान भाजपा नेता देख रहे थे वे अरमान पूरे नहीं हो सके. इस सख्ती ने जनता को फायदा तो कम पहुंचाया पर नुकसान बहुत पहुंचाया.
उदाहरण के तौर पर देखें तो शिक्षा सहित विभिन्न विभागों में ट्रांसफर की फाइल पर जब तक योगी आदित्य नाथ के हस्ताक्षर नहीं होते थे तब तक वह फाइल आगे नहीं बढ़ती थी. योगी ने यह फैसला ट्रांसफर-पोस्टिंग में होने वाले रिश्वत के खेल को रोकने के लिए किया था लेकिन इसकी भेंट वास्तविक जरूरतमंद चढ़ गए. संघ के पदाधिकारी प्रशांत भाटिया ने ऐसे ही एक जरूरतमंद शिक्षक की फाइल योगी के कार्यालय में दी थी जिसकी पत्नी बच्चे को जन्म देते ही चल बसी थी और उस शिक्षक पर दो बच्चों की परवरिश सहित 85 साल की बूढ़ी मां की परवरिश की भी जिम्मेदारी थी लेकिन उस फाइल पर योगी आदित्य नाथ के हस्ताक्षर वर्षों तक नहीं हो सके. उसका नवजात बेटा पिता के होते हुए भी अनाथों जैसी जिंदगी बिताने को मजबूर हो गया. उसे न मां की गोद नसीब हुई और न ही पिता का साया. बेबस शिक्षक के दिल से बस यही शब्द निकले थे कि इससे अच्छी तो सपा की सरकार थी, पैसे देकर ही सही काम तो हो जाते थे.
कहने का तात्पर्य यह है कि योगी सरकार सैद्धांतिक पक्ष में इतनी उलझकर रह गई कि व्यावहारिक मोर्चे पर पूरी तरह फेल हो गई.
बहरहाल, पिछले दो दिनों में प्रदेश प्रभारी राधामोहन सिंह, प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह और भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री संगठन बीएल संतोष ने मंत्रियों और विधायकों के साथ अलग-अलग बैठक की जिसमें कार्यकर्ताओं और नेताओं की नाराजगी की बात निकलकर सामने आई. अब इसी आधार पर योगी आदित्य नाथ की बलि चढ़ाने की तैयारी की जा रही है. भाजपा हाईकमान भले ही इसे जायज और पार्टी के लिए हितकारी समझे मगर इस फैसले में अब बहुत देर हो चुकी है. अत: इस वक्त यह फैसला भाजपा के लिए आत्मघाती साबित होगा. भाजपा हाईकमान को चाहिए कि कोरोना काल की जिन नाकामियों के कारण उसकी थू-थू हो रही है उन नाकामियों के लिए जिम्मेदार अस्पतालों और लाखों रुपये वेतन पाने वाले अधिकारियों को सजा दी जाए. फिर चाहे वे अस्पताल भाजपा नेताओं के ही क्यों न हों. इससे भाजपा अपनी निष्पक्ष छवि को बरकरार रख सकेगी और योगी आदित्य नाथ एक सख्त व सबको समान समझने वाले प्रशासक के रूप में जाने जाएंगे. हिन्दुत्व को लेकर पहले ही योगी की छवि बनी हुई है. योगी के नेतृत्व में प्रदेश में कई बड़े काम भी किए गए हैं, उन्हें भुनाया जाए. न कि योगी को हटाकर उनकी कामयाबी को भी नाकामयाबी साबित किया जाए. अगर भाजपा ऐसा करती है तो जनता उसे आसानी से नहीं नकार पाएगी वरना जो हाल पंचायत चुनाव में हुआ है उससे भी बुरी स्थितिविधानसभा चुनाव में होगी. बहरहाल, योगी रहेंगे या जाएंगे इसका फैसला तो पांच जून को सर संघ चालक मोहन भागवत की बैठक के बाद ही होगा.
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