यूपी

युगान्तर की अन्तर्ध्वनि-प्रतिध्वनि: ‘देखो यह पुरुष

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बी. एल .आच्छा
ऐतिहासिक नाटकों का सृजन जोखिम भी है और समकालीन वैचारिकता से समंजित करने की चुनौती भी। इतिहास प्रसिद्ध कथानकों के चरित्रों और उससे सम्बद्ध संस्थाओं या जनता में मनोगत बदलाव की गुंजाइश अधिक नहीं होती। भारतीय इतिहास के मिथकीय पात्रों मे अलबत्ता यह उपजीव्य संभावनाएँ लचीली हैं। इसीलिए उनसे विधाएँ समृद्ध और वैचारिक तेजसवाली बनी हैं। पर ईसा के चरित्र और कथानक को समकाल के वैचारिक संवेदन से जोड़ना सहज नहीं है। लेकिन ‘देखो यह पुरुष’ नाटक धर्मपाल अकेला के साहस और वैचारिक मन्थन की सुनियोजित परिणति है। नाटककार ने ईसा से सम्बद्ध सुसमाचारों के साहित्य और युगीन इतिहास में गहरे गोते लगाये हैं। संवादों में उनकी प्रामाणिक और तार्किक झलक पाठकों को प्रबोध देती है।
इस नाटक में यहूदी मान्यताएँ हैं। नाटक में मूसा- काल की शास्त्रीय व्यवस्थाएँ हैं, रोमी साम्राज्य और यहूदी जनसमुदाय की टकराहटें भी हैं। और इन सभी के बीच उगती- टकराती ईसा की छवि की गहराइ‌याँ भी हैं। नाटककार ने उस मूल केंद्र को पकड़ा है, जो युगीन बदलावों में संक्रमण का जनमानस बनाता है। जन समुदाय के लिए जो नयी उतरती रौशनी है, वह पुरानी शास्त्रीय- धार्मिक रूढियों में जकड़ी हुई जनता पुराणपंथियों के साम्राज्य के कारण समझ नहीं पाती। ईसा के विरुद्ध इस रूढ धार्मिक व्यवस्था का प्रतिनिधि काईफा कहता है-” यह सारा मुकद‌मा यहूदी जाति के अस्तित्व के प्रश्न से जुड़ा है। यह मुकदमा युगों से चली आ रही मान्यताओं और अभियुक्त की मानसिकता के बीच संघर्ष का है।” सामान्य जनता, धर्म के नाम पर रूढ़ शास्त्रीय व्यवस्थाओं को अंतिम मान लेती है और धर्म के तथाकथित नियामक अपने स्वार्थों के कारण इस नयी रौशनी को उगते ही नहीं देते। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘पुनर्नवा ‘में धर्माधिकारियों के बीच कथन का सारभूत यह है कि धार्मिक -सामाजिक मान्यताओं के परिष्करण पर निरंतर विचार नहीं किया गया तो समाज तो टूटेगा ही,धर्म को प्रभावित करेगा।
इसीलिए शास्त्रीय मान्यताएँ अंतिम नहीं है। बदलते समय और समाज में उनका अतिक्रमण धार्मिक विरोध नहीं है। दरअसल बदलता समय उन्हें संगत-विसंगत धारणाओं की कसौटी पर कसने के लिए बाध्य करता है। इसलिए कि उनके भीतर की चेतस और संवेदन दृष्टि सूख चुकी होती है। अंतरंग आशय को न समझकर जो शुष्काचार बचा रहता है, वह नियन्ताओं के भरणपोषण और स्वार्थों का आधार बन जाता है।
इस नाटक पर बात करने से पहले लेखक के दूसरे नाटक ‘प्रजा ही विष्णु है’ की चर्चा भी जरूरी है। दोनों नाटकों में जनता ही सबसे बड़ा वर्गीय सामुदायिक पात्र है। पर दोनों नाटकों की जनता की मानसिक संरचना के दाब और विद्रोह की चेतना में अंतर है। एक बेहद प्रभावी संवाद है, “देखो यह पुरुष” नाटक की पात्र प्रोकुला कहती है-“क्योंकि पतनोन्मुखी भीड़, अन्धकूप में पड़ी हुई जाति को एक चिन्तक के मुकाबले में एक डाकू अधिक सगा प्रतीत होता है। डाकू केवल समकालीन को आतंकित कर सकता है, किन्तु चिन्तक आने वाली पीढ़ियों को युगों तक उद्वेलित करता
रहता है। दिमागों में बीज की तरह पलता है।”इसके विपरीत “प्रजा ही विष्णु है ” की जनता स्वयं विद्रोह कर के कौरव पुत्रों द्वारा चीरहरण में द्रौपदी की लज्जा को बचाती है। नाटककार ने विष्णु के मिथक को आत्मचेतस प्रजा तक विस्तार दे दिया है। प्रजा या जनता दोनों नाटकों में जीवित है। पर ‘देखो यह पुरुष’ में तब जागती है, जब मृत्यु के बाद ईसा को युग परिवर्तक मूल्यों के आत्मतेज वाले नबी के रूप में पहचानती है। ‘प्रजा ही विष्णु है’ की जनता द्रौपदी के साथ अन्याय का प्रतिरोध करती है। सारभूत यही कि किसी भी काल की धार्मिक – शास्त्रीय या अन्य मान्यताएँ अंतिम नहीं होतीं। समय के साथ वे महज शुष्काचार और धार्मिक रूढ़िवाद बन जाती है। तब नया आत्मतेज नये लक्षणों और समकाल की चेतना के अनुरूप अवतरित होना चाहता है, किसी नायक के रूप में। जनहितैषी लोकनायक की ‘युग-प्रकाशी’ चेतना के साथ। लोक में जब तक आत्म-चेतस सामाजिक प्रतिरोध नहीं होता, तब तक जड़ व्यवस्थाओं के उत्खात के लिए नयी रौशनी भी नहीं आती।।
ऐसा भी नहीं कि इस नाटक में जनता में चिन्गारी नहीं है। आरंभ में ही हैकल में ‘फसह ‘के उत्सव में देश- विदेश से आए लोगों के बीच का पात्र रोमी कहता है-“क्योंकि तुम लोग मसीह का प्रतीक्षा में तो हो, पर उसे पहचानने की सामर्थ्य खो चुके हो। सोचते हो कि नये युग में पुरानी पुस्तकों में वर्णित ढंग का मसीह ही आएगा। अतः जब-जब तुम्हारा मसीह आएगा तब तब तुम्हारी जाति के बड़े-बड़े आदमी और तुम याजक लोग उसे पकड़वाकर मरवाने का कुचक्र रचोगे । इसलिए तुम लोग सदा पराधीन ही रहोगे और मसीह की प्रतीक्षा ही करते रहोगे।”यही नहीं कई बार भारत आनेवाले अबीमेलेक से भारत के बारे में पूछा जाता है,तो यही कहता है-“हाँ ! देश तो अच्छा है ही वहाँ के लोग खुले मस्तिष्क के हैं— ईश्वरीय सत्ता, आस्तिकता और नास्तिकता के सम्बन्ध में जनसाधारण परस्पर मुक्त- भाव से विचार-विमर्श कर लेते हैं। विधर्मियों के प्रति घृणा वहाँ कहीं भी देखने में नहीं आई। उस देश के पवित्र धर्म-ग्रन्थ का नाम है ‘वेद’, लेकिन बहुतेरे उसमें अविश्वास रखने पर किसी विश्वासी भारतीय के कोप- भाजन बनते नहीं देखे गए ! वे लोग अतिथि का सम्मान करना जानते हैं और वहाँ पर नारी को सामाजिक प्रतिष्ठा भी प्राप्त है । सम्पत्ति में अधिकार भी।”तो नाटक के विचार तंतु झलक दे जाते हैं।पहले अंक में ही जनता के संवादों में तड़प भी है,आग भी है, निराशा भी है;पर चुनौती की आस्था भी-“देख लेना,जिस दिन कोई उठ खड़ा हुआ,याजकों का सारा रौबदाब धरा का धरा रह जाएगा।”ये संकेत हैं,पर जनचेतना उसी कोहरे से आच्छादित है।
नाटककार ने तीन अंकों में यह पटकथा बुनी है। लेकिन ईसा काल के इतिहास को जड़ों से समझा है। मूसाकाल के आचारों को रूढ़ता के साथ लागू करनेवाले और धर्म की मानवीय प्राणवत्ता को न समझनेवाले धर्माधिकारियों के माध्यम से।बाइबल और सुसमाचारों के सन्दर्भों के माध्यम से। नाटक के लिए यह सर्वथा नयी जमीन थी, उसके ग्रंथों और धार्मिक- राजनैतिक परिवेश को समझना गहन अध्यवसाय का विषय है।उस शब्दावली और जनसंवेदन के साथ सत्ता व्यवस्थापन प्रणाली से उसे इतिहासबद्धता के साथ बुनना उसके कौशल और चेतना की अंतरगता को जतलाता है। इसीलिए ऐतिहासिक नाटकों की विश्वसनीयता कल्पनाशीलता के साथ इन्हीं प्रत्ययों से ऐतिहासिक रंग उभारती है।
कथा-रंग की इसी विश्वसनीयता में लेखक समकाल की चेतना के रंग भरता है, पर वे ऊपर से लिपे-पुते चिपकाए नजर नहीं आते। अलबत्ता लेखक के भाव-संवेदन में या उसके नेपश्य में आज की विचारधाराएँ,
आज का नीति-संवेदन, आज का समाजशास्त्र, आज का अर्थशास्त्र, आज की राजनीति और मानवाधिकारों का सचेतन विचार प्रवाहित रहता है। इसीलिए जिन मान्य विद्वानों के इस नाटक पर टिप्पणियाँ की हैं, उनकी अनदेखी भी नहीं की जा सकतीं। और उनकी संगति का औचित्य भी प्रश्नांकित करता है। बच्चन जी ने अपने पत्र में इस नाटक की प्रशंसा के साथ टिप्पणी भी की है-” यहूदा के कथन, ‘शक्ति- भर काम, आवश्यकता भर दाम’ से ऐसा लगता है कि जैसे मार्क्स को ईसा पर आरोपित किया जा रहा है। उसके लिए काश, आप दूसरी शब्दावली का प्रयोग करते।”(बच्चन ग्रंथावली भाग -9 पृष्ठ 387-88) सव्यसाची ने इस नयी व्याख्या के साथ, जो तर्क संगत भी है;पर स्वीकार्यता पर संदेह किया है। इसका तात्पर्य यही है कि इस युग की वैचारिक झंकृति तो नाटक में है और यह हर युग नये प्राणतन्त्र का चेतस-बीज है। जो बात धर्मस्थलों से टकराकर जीवन और जन तक आई है, इसका अर्थ ही यही है कि वह लेखक के भाव-संवेदन में रची- बसी है, अपने समकाल के साथ। यहूदा बेबाकी से कहता है-“आचरण करने के लिए शुभाशुभ का विवेक चाहिए। विवेक मनुष्य के पास होता है। मनुष्य एक जीवंत प्राणी है।धर्म मनुष्य के लिए है, मनुष्य के लिए धर्म नहीं है।”यहां मनुष्य की केंद्रीयता के साथ धर्म की अनदेखी नहीं है, बल्कि धर्म के सामाजिक संवेदन की तरलिमा खो चुके नियमों की ओर इंगित है।
यह नाटक केन्द्रित तो है ईसा पर ,लेकिन ईसा केवल आचरण और जन-संवेदन की भाषा में व्यक्त होते हैं। सो भी उस शिष्य यहूदा के माध्यम से; जिसने ईसा को पकड़वाया था। पर यहूदा के प्रायश्चित की भाषा और न्याय प्रक्रिया में उसके उत्तर ईसा के चरित्र और जनहितैषी न्यायिक विवेक को उस ऊँचाई पर ले जाते हैं, जो बाद में ईश्वरीय तादात्म्य में रूपान्तरित होता जाता है। इसीलिए ईसा केन्द्रीय पात्र नहीं, केन्द्रीय विचार हैं। ईसा के बारह शिष्यों में से एक है यहूदा। यहूदा को एक घटना ने इतना उद्वेलित कर दिया था कि उसने ईसा का पता बताकर पकड़वा दिया। ईसा की धारणाएँ और उसका आचरण मूसा काल की धार्मिक मान्यताओं और रूढ़ियों का विरोधी था। आम धारणा थी कि नया नबी किसी गदही के बछेरे पर बैठकर नगर प्रवेश करेगा और नयी रौशनी लेकर आएगा। पर यहूदा का विश्वास तब खंडित हो गया, जब एक धनवान औरत ने ईसा पर खस का आधा सेर बहुमूल्य इत्र उड़ेल दिया और ईसा ने प्रतिकार नहीं किया ।शिष्यों में ईसा के आचरण को लेकर प्रतिक्रिया हुई-” यह धन का अपव्यय है, इससे अनेक गरीबों की भूख मिटाई जा सकती थी।” उन्हें ईसा भोगी लगे और आवेश में ईसा को पकड़वाने में मदद की।
लेकिन यही यहूदा वह प्रायश्चित- जनित पात्र है, जिसके प्रतिवादों में ईसा का आचरण, ईसा का आत्मतेज और ईसा के वैचारिक पोषण की शक्ति है। ईसा पर लगाये गये सारे आरोपों का उत्तर उसके पास है, मगर उसे अफसोस है कि उस घटना को लेकर उसकी बुद्धि पर संदेहों का पर्दा पड़ गया। जब ईसा के दृष्टांतों के आन्तरिक अर्थ और जनता के बीच समानता की योजक धारणाओं का अन्तर्बोध हुआ, तब तक ईसा को अपराधी करार दे दिया गया। इस प्रक्रिया में तत्कालीन साम्राज्य व्यवस्था, धार्मिक संस्थाओं के नियामकों के संवेदनहीन शास्त्रीय धर्माचार, जनता में इन नियामकों का विचारविहीन प्रभावों को सामाजिक स्तर पर बुना गया है। ईसा जैसे व्यक्तित्व को ये बिंदु उस नुकीली सजा तक ले जाते है, जहाँ जनता तत्कालीन धार्मिक याजकों के दबाव मे डाकू बरब्बास को अपराधमुक्त कर देती है और ईसा को क्रूस पर लटकाने के लिए बाध्य कर देती है। शासन तंत्र तक ईसा का पक्षधर है, मगर धार्मिक याजकों के शुष्काचारों के मिथ्या आरोपों के आगे बेबस है।और जनता उन्हीं से दिग्भ्रमित। इसी द्वन्द्वात्मकता में नाटककार ने उस वैचारिकता का विन्यास किया है, जो समकाल की चेतना के साथ ईसा के व्यक्तित्व को एकतान करती है।

धर्मपाल अकेला

ईसा पर मुकदमे की न्यायिक प्रक्रिया में जो आरोप लगाये गये हैं, वे तत्कालीन समाजशास्त्र और धार्मिक रूढ़िवाद में बँधी जनता का वास्तविक परिदृश्य बुनते हैं। मंदिर गिराने, राज्य को कर न देने, सामान्य नागरिक की तरह कोढ़ियों के मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध और उनकी पापमुक्त शुद्धता, बिना कर्मकाण्ड के खर्च के पाप का शुद्धीकरण, सब्त याने विश्राम के दिन काम, व्यभिचारी पुरुष के बजाय व्यक्तिचारिणी स्त्री पर घृणा के साथ पथराव, शैतानी माया से अंधे-लूलों को स्वस्थ करना, सामरियों के साथ खानपान से यहूदियों की जातीय श्रेष्ठता को हानि पहुँचाना जैसे अनेक आरोप ईसा के परमेश्वर के राज्य और मानव मात्र में प्रेम की सत्ता के विचार के विरोधी हैं।पर इन आरोपों का विरोध धर्म और राज्य की व्यवस्था का विरोध है। और यह क्षम्य नहीं है। ईसा इसी प्रतिरोध की आंतरिक पुकार हैं, जो उन्हें क्रूस तक ले जाती है। मगर युगान्तर में उसी समाज की पवित्र अन्तर्ध्वनि बन जाती है।
आरोपों की इस श्रृंखला में यहूदा के वे उत्तर भी माकूल हैं, जिनसे राज्य के गवर्नर पिलातुस तक सहमत हैं। पर धर्म के याजकों और जनता के रूढ़ धर्माचारों के कारण जनता द्वारा डाकू बरब्बास को अपराध मुक्त कर दिया जाता है और ईसा को प्राणदण्ड दे दिया जाता है। जनविद्रोह के भय और रोमी शासन पर खतरों को समझते हुए पिलातुस जैसा राज्य प्रशासक भी विवश है। यहीं लेखक के लिए अवकाश रहा कि यहूदा के संवादों के माध्यम से नयी रौशनी के अवतरण को प्रभावी संवेदन बना सके। लेखक ने कल्पनाशीलता से ऐसा कथा विन्यास किया है कि जनता के कहने से जिस डाकू बरब्बास को जनता ने आरोप मुक्त किया है, उसे दोनों पक्षों की सहमति से न्याय की कुर्सी पर बिठा दिया। बरब्बास का सन्दर्भ ऐतिहासिक है, पर न्यायकर्ता के रूप में नहीं। लेकिन इस बहाने लेखक ने एक यहूदा के संवादों के प्रभाव से बरब्बास में ऐसा हृदय परिवर्तन ला दिया है; जो ईसा हो या गाँधी, पर समकालीन चिन्तन की प्रतिछवि बन जाता है।


यहूदा इस नाटक का प्राण है, यद्यपि नाटककार के अनुसार वह प्रायश्चित के बावजूद अपने अपराध से मुक्त नहीं हो पाया।अभिनय की दृष्टि से जीवंत संवादों वाले नाटक के तृतीय अंक में वे विचार कणिकाएँ हैं, जो धार्मिक शुष्काचार में जकड़े हुए समाजशास्त्र को खोलती हैं। न्याय प्रक्रिया में यहूदा शपथ का निषेध करता है , क्योंकि सत्य की आस्था प्रतिज्ञाओं के कालातीत बंधनों से मुक्त रहना चाहती है। ज्ञान के कारण जीवित मनुष्य के साथ ईश्वरीय एकात्मकता, शिष्यों में स‌द्विवेक जागृत करने की अनियंत्रित स्वतंत्रता, अपमार्ग में पगे अपराधियों से प्रेम, प्रार्थना-हृदय की शुद्धता और व्यक्ति सहित घट घट में ईश्वर की व्याप्ति, आत्मज्ञान से अहंकार का निवारण, धर्मतंत्र के बजाए मानव के प्राणतंत्र की रक्षा, वैयक्तिक प्रभुता, के बजाय समानता और प्रेमजनित भावना का विस्तार, भोग और परिग्रह के बजाए वंचितों का भरण-पोषण, पूँजी की केन्द्रीयता के स्थान पर कल्याण की सोद्देश्यता, आंतरिक स्वतंत्रता का आत्मबोध जैसे अनेक मूल्यपरक पक्ष आरोपों की कुंठित समाज दृष्टि पर छाए कोहरे पर युगांतर की रौशनी फैला देते हैं। इन आरोपों के उत्तर निश्चय ही हृदयग्राही हैं, समकालीन वैचारिकता के पक्षधर हैं और किसी हद तक ईसा के व्यक्तित्व पर आरोपित नहीं लगते। इनमें लेखकीय संवेदन-तंत्र झाँकता जरूर है, पर पात्रों के सृजन में चिपकाया हुआ नहीं लगता। लेखक का सोच, उसकी भावाकुलता, प्रतिरोध चेतना, आविष्ट तार्किकता और लक्ष्य साधने की छटपटाहट पात्रों में लक्षित अवश्य होती है, पर लेखकीय प्रवेश से संवादों और चरित्रों को आरोपित नहीं करती।

बीएल आच्छा

ऐसे वैचारिक उष्मा वाले नाटकों का मंचन आसान नहीं होता। वे हमेशा दर्शक की प्रज्ञा को टन्न किये रहते हैं। पर समय- सचेतन दर्शक जब इन संवादों और न्यायिक प्रक्रिया की सहजता में उभरे नजरिए से रूबरू होता है, तो नाट्य दृश्यों का सहयात्री बनता चला जाता है। इन दृश्य बंधों में सकर्मकता है,अभिनय की क्रियशीलता है,वाद-विवाद की सतर्क निरंतरता है। सच्चाइयों से रूबरू होते हुए निरंतर बदलाव की सामाजिकता की गत्यात्मकता का नजरिया उसे बाँधे रखता है। नाट्य मुद्राओं से भाव व्यंजना की बॉडी लैंग्वेज असरदार है। पहले ही अंक में बरब्बास जैसे को मुक्त करने और ईसा को सूली पर चढ़ाने जैसा निर्णय फ्लैश बैक- सा चौंकाता है और दर्शक को इस धुरी पर निर्णय की समालोचना के लिए बाँधे रखता है। दूसरे अंक में न्यायिक प्रक्रिया में वे पन्ने खुलते हैं, पर आरोप और उनके उत्तर ‘तत्कालीन समाज और धर्म-तंत्र’ का यथार्थ प्रकटाते हैं। अपना अर्थ खो चुके या वास्तविक अर्थों को ढक देने वाले धर्माचारों के अतिक्रमण के आरोपों के उत्तर वैचारिकता के साथ आत्ममंथन की नयी रौशनी देते हैं।
पर तीसरा अंक तो सारे आरोपों का उत्तर देते हुए यहूदा के माध्यम से उस प्रकाश को विकीर्ण कर देता है, जो प्रायश्चित में गलकर ईसा के मंतव्य को, आधुनिकता उसकी दृष्टान्त भाषा के भीतरी अर्थों को समकालीन चिन्तन तक ले आता है। यो रंग-संकेत मंचन और अभिनय की दृष्टि से सकारक हैं,पर प्रकाश-ध्वनि को छोड़कर कोई विशेष व्यवस्था और दृश्य परिवर्तन की आवश्यकता नहीं होती। सारे संवाद आरोपों और उत्तरों की वैचारिक धार में पगे हैं और दर्शकों को उलझाए रखती है। नाटककार ने ईसाई सम्प्रदाय की शब्दावली, ईसाई ग्रंथों के सन्दर्भ, फसह जैसे त्यौहारों, नबी के अवतार के संभावित लक्षणों की चर्चा इसतरह की है कि ऐतिहासिक रंग और वैचारिक खुलेपन का अनुबंध, पूरे मंचन के साथ दर्शक को बाँधे रखता है। इस नाटक के मंचन की सामर्थ्य और संभावना को प्रख्यात रंग- आलोचक नेमिचन्द्र जैन ने व्यक्त किया है और दिल्ली साहित्य कला परिषद में इसे मंचित भी किया गया है। इस नाटक का मंचीय निर्वहन भी गत्यात्मक है और वैचारिक मंथन की प्रक्रिया भी गत्यात्मकता का मंचीय प्रतिदर्श बन जाती है। नाटककार ने न तो ईसा की जीवनी लिखी है, न धर्मग्रंथों के साथ ईसाई धर्म को लक्षित किया है। बल्कि ईसा कालीन समाज और राज्यव्यवस्था के साथ उन विश्वासों को संयोजित किया है, जो मनुष्य मात्र की समानता, उनके अभावों की पूर्ति का चिंतन, समाज के हर वर्ग के बीच प्रेम का प्रसार और मनुष्य में ईश्वरीय चेतना के साक्षात्कार के साथ जीवन और समाज को गत्यात्मक नवीनता देते हैं। इस कारुणिक अन्त वाले नाटक की यही ऐतिहासिक नियति है, पर जन जागृति की प्रज्ञा का यही उदीयमान प्रकाश है। इस रूप में इसे केवल ईसा तक सीमित नहीं किया जा सकता। यह बीज विचार है, जो हर युग की जड़ता पर प्रहार और नये संजीवन के विचार की प्रक्रिया है। सन् 1979में वाणी प्रकाशन और बाद में तिरुपति प्रकाशन से प्रकाशित इस नाटक के लिए यह भी कहा गया कि ऐसा नाटक विश्व की अन्य भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। इतना तो तय है कि इस नाटक की कथानकीय बुनावट,चरित्रों की निर्मिति, ऐतिहासिकता के साथ कल्पना का तादात्म्य, समाजशास्त्रीय यथार्थ को वैचारिक उद्वेलन में बदलने की साहसिकताऔर मंचन की अनुकूलता की दृष्टि से यह पाठकीय पुरस्कार तो मिलेगा ही।
मो-9425083335

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