सुधीर राघव
नेता नाव में है. और नाव पानी में. नेता अकेला नहीं है. उसने पूरी पार्टी को नाव में भर लिया है. नेता लालची है. इसलिए उसने दूसरी पार्टियों के लोगों को भी अपनी नाव में लाद लिया है. ज्यादातर को तो बाकायदा गुंडे भेजकर उठवाया है और तब अपनी नाव में लादा है. लालच का फल फलीभूत हो रहा है. बीच मझधार नाव डगमगा रही है. नाव में बोझ बहुत ज्यादा है. ऊंची लहरों में नाव ज्यादा वजन से नीची हो चली है. उसमें पानी भर रहा है. नाव डूब रही है. सभी सवार घबरा रहे हैं. मगर नेता मानने को राजी नहीं है. वह सबका उत्साह बढ़ाने के लिए नारे लगा रहा – अबकी बार, नदिया पार! मगर नाव में सवार भीड़ पलटकर जवाब नहीं दे रही. भीड़ का उत्साह नहीं बढ़ रहा. उसकी तो घिग्घी बंधी है. सब जान रहे हैं कि नदी में मगरमच्छ हैं.
कल तक तो नेता भी मगरमच्छ था. पूरी नदी में उसका राज था. मगर आज हालत दूसरी है. आज चुनाव हैं. चुनावी मौसम नेता के जीवन-मरण के समान है. उसका सब कुछ दांव पर लगा होता है. अतः मगरमच्छी छोड़ कर नेता को शरीफ बनना पड़ता है. अपनी नाव खुद ही चलानी होती है. लेकिन अब नाव चल नहीं रही है. इतना खा लिया है कि चप्पू खुद नेता को पप्पू पुकार रहा है. वह नेता के इशारे पर हिलने को राजी नहीं है.
दूसरी ओर विरोधियों के नावें काफी हल्की हैं. उनका काफी बोझ तो नेता ने ही अपनी नाव में लाद लिया था. ये नावें लहरों पर हवा से बातें करती किनारे की तरफ बड़ी तेजी से बढ़ रही हैं. यह देखकर नेता और डर जाता है. उसे भय है कि जिन्हें उसने उठवाया था वे सभी और उसके अपने संगीत साथी भी कहीं कूदकर उन नावों में न सवार हो जाएं. इसलिए वह चिल्ला रहा है, मित्रों! उनकी तरफ मत जाइएगा. वे तुम्हारा मंगलसूत्र छीन लेंगे. वे तुम्हारी भैंस छीन लेंगे. नाव में बंधक लोगों को समझ नहीं आ रहा है कि वे अपना मंगलसूत्र बचाएं या अपनी भैंस बचाएं या अपनी जिंदगी. सभी परेशान हैं. विपक्ष की सारी नावें दूर चली गई हैं.
अब नेता के पास दो ही विकल्प हैं. पहला यह कि उसे नाव से कूदकर मझधार में डूबना है या दूसरा यह कि उस नाव के साथ ही मझधार में डूबना है. पानी गले तक आ गया है. नेता तय नहींं कर पा रहा. इसलिए और जोर से चीखता है- अबकी बार नदिया पार! मगर जवाब में सिर्फ बुड़ बुड़ की आवाज आती है. नदी में न नाव है न लोग. बस मगरमच्छों के नये दल नजर आ रहे हैं. अगले चुनावी मौसम तक नदी पर इनका ही राज रहेगा.
#सुधीर_राघव