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कुछ तो शर्म करो…सात विधायक, दो एमएलसी, दो सांसद, एक मेयर और तीन मंत्री हैं बरेली जिले से भाजपा के, फिर भी ढाई साल में कोई बड़ा प्रोजेक्ट नहीं दिला सके बरेली को

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नीरज सिसौदिया, बरेली
लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी यूपी की 80 में से आधी सीटें भी नहीं जीत सकी। स्थानीय नेताओं से लेकर आलाकमान तक इसका ठीकरा एक-दूसरे पर फोड़ रहे हैं। इस हार से भले ही बरेली जिला अछूता रहा हो लेकिन अगर मौजूदा स्थिति बरकरार रही तो 2027 के विधानसभा चुनाव में बरेली जिले में भी वही होगा जो लोकसभा में बाकी प्रदेश में हुआ और इसके जिम्मेदार यहां के भाजपा के निर्वाचित जनप्रतिनिधि ही होंगे।
विधानसभा चुनाव 2022 से पहले ये भाजपा नेता बरेली में विकास की गंगा बहाने का दावा कर रहे थे। गंगा तो बही लेकिन बरेली को उबारने की जगह डुबाेती नजर आई।

जितिन प्रसाद
छत्रपाल गंगवार

विधानसभा चुनाव को लगभग ढाई साल हो चुके हैं लेकिन अब तक यहां के निर्वाचित जनप्रतिनिधि जिले को एक भी बड़ा प्रोजेक्ट नहीं दिला सके हैं। न बरेली में एम्स बना न साउथ के लिए कोई ट्रेन चली, न औद्योगिक विकास के लिए नया इंडस्ट्रियल एरिया बना, न नाथ सर्किट डेवलप हुआ और न ही वंदे भारत जैसी ट्रेन ही बरेली को नसीब हुई।

संजीव अग्रवाल, अरुण कुमार और राघवेंद्र शर्मा

बता दें कि बरेली जिले में तीन संसदीय क्षेत्र पड़ते हैं। पहला बरेली, दूसरा पीलीभीत और तीसरा आंवला। इनमें से दो सीटों पर भाजपा के सांसद आसीन हैं। बरेली से पूर्व मंत्री छत्रपाल गंगवार सांसद बने हैं तो पीलीभीत से दल-बदलू केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद। इसी तरह बरेली जिले की नौ विधानसभा सीटों में से सात सीटों पर भाजपा के विधायक काबिज हैं। बरेली शहर से डॉ. अरुण कुमार विधायक हैं जो योगी सरकार में मंत्री भी हैं। कैंट सीट से संजीव अग्रवाल, फरीदपुर से श्याम बिहारी लाल, आंवला से धर्मपाल सिंह, मीरगंज से डॉ. डीसी वर्मा, बिथरी से डॉ. राघवेंद्र शर्मा और नवाबगंज से डॉ. एमपी आर्य विधायक हैं। इनमें सांसद छत्रपाल गंगवार और विधायक धर्मपाल सिंह पूर्व में मंत्री भी रह चुके हैं। धर्मपाल सिंह मौजूदा समय में भी मंत्री हैं। हालांकि, मौजूदा समय में इन दोनों में से कोई भी मंत्री नहीं है।
वहीं, राघवेंद्र शर्मा, एमपी आर्य और संजीव अग्रवाल पहली बार विधायक बने हैं। इन तीनों के ही खाते में ढाई साल की उपलब्धि शून्य है। दिलचस्प पहलू यह है कि ये तीनों ही आरएसएस की मेहरबानी से विधायक बने हैं।

डॉ. एमपी आर्य, श्याम बिहारी लाल और डीसी वर्मा

संजीव अग्रवाल और राघवेंद्र शर्मा को पार्टी ने दो बड़े दिग्गजों को किनारे लगाने के मकसद से उतारा था। अब दोनों दिग्गज किनारे लगा दिए गए तो पार्टी ने इन दोनों ही नेताओं को गंभीरता से लेना बंद कर दिया है। संजीव अग्रवाल ने विधानसभा में बरेली में मैट्रो ट्रेन चलाने का मुद्दा उठाया था लेकिन सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। बरेली कॉलेज को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की मांग भी उठती रही मगर सरकार ने इसे भी गंभीरता से नहीं लिया। मंत्री बनने के बाद अरुण कुमार सरकार के इतने आभारी हो गए कि उनके मुंह से कुछ निकलता ही नहीं। वैसे भी अरुण कुमार को पता है कि उन्हें अगली बार तो टिकट मिलना नहीं है, इसलिए वह मंत्रित्व काल का भरपूर आनंद उठा लेना चाहते हैं। रही बात धर्मपाल सिंह, डीसी वर्मा, एमपी आर्य और श्याम बिहारी लाल की तो उन्हें बड़े प्रोजेक्ट से कोई लेना-देना है नहीं। छत्रपाल गंगवार और जितिन प्रसाद को इसलिए दोष नहीं दे सकते क्योंकि उन्हें अभी कुर्सी पर बैठे हुए जुमा-जुमा चार दिन भी नहीं हुए हैं।

धर्मपाल सिंह, बहोरन लाल मौर्य और महाराज सिंह

दरअसल, बरेली के भाजपा विधायक जानते हैं कि भाजपा में व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ता बल्कि संगठन चुनाव लड़ता है। इसलिए काम करने की कोई जरूरत ही नहीं है। नेता जानते हैं कि पार्टी के नाम पर उन्हें चुनाव लड़ना है, इसलिए काम भी पार्टी को ही कराने दो। पार्टी काम कराएगी तो नेता जी खुद ब खुद चुनाव जीत जाएंगे। फिर हिन्दू-मुस्लिम तो है ही। काम कराओ या न कराओ बस लोगों के बर्थ डे, शादी और निधन के अवसर पर पहुंच जाओ। किसी की दुकान का उद्घाटन कर दो तो किसी को ठेका दिलवाकर कमीशन ले लो। इसी तरह बरेली के भाजपा नेताओं की सत्ता चल रही है।

उमेश गौतम

मीडिया पर वैसे ही इतनी सख्ती है कि आज तक किसी भी मीडिया वाले को इन जनप्रतिनिधियों ने बतौर विधायक या बतौर मंत्री अपनी उपलब्धियों पर कोई इंटरव्यू ही नहीं दिया। ऐसा इसलिए है कि जब कोई काम होगा तभी तो नेता जी का नाम होगा। जब कोई उपलब्धि ही नहीं है तो इंटरव्यू में क्या खाक बताएंगे।
बरेली की कारीगरी, जरी-जरदोजी के कारोबार को नया आयाम देने के लिए पिछले ढाई वर्षों में कोई नया प्रोजेक्ट शुरू नहीं किया गया। बांस के कारोबार के लिए कुछ नहीं किया गया। अवैध कॉलोनियों की बाढ़ आ चुकी है लेकिन कोई देखने वाला नहीं है।
सत्ता सुख भोग रहे नेताजी को अभी भले ही ये सब समझ न आए लेकिन ढाई साल बाद जब फिर चुनाव सिर पर होंगे तो ये क्या मुंह लेकर जनता के बीच जाएंगे, यह सबसे बड़ा सवाल है। उससे भी बड़ा सवाल है कि क्या पार्टी ऐसे नेताओं पर दोबारा दांव लगाने की गलती करेगी जिनके खिलाफ क्षेत्र में गुस्सा हो और एंटी इनकंबेंसी का माहौल हो। वो उस वक्त जबकि सियासी हवा का रुख भाजपा के खिलाफ हो। यकीनन पार्टी भी इन नेताओं के विकल्प तलाशेगी।

कैंट विधायक संजीव अग्रवाल हों या शहर विधायक अरुण कुमार दोनों ही जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे हैं। इन्होंने ढाई वर्षों में बरेली को ऐसा कोई भी बड़ा प्रोजेक्ट नहीं दिलाया जो यहां की जनता की उम्मीदों को पूरा कर सके।

विधानसभा चुनाव में अब ज्यादा समय नहीं रह गया है। कहने को तो चुनाव 2027 में हैं लेकिन चुनावी लड़ाई तो लोकसभा में मिली हार के साथ ही शुरू हो चुकी है। अब भी वक्त है कि ये सियासतदान कुछ ऐसा काम कर जाएं जो आगामी विधानसभा चुनाव में विपक्ष का मुंह बंद कर सके वरना कुर्सी खुद – ब- खुद इन नेताओं को छोड़ देगी। जब दिग्गजों को किनारे लगाया जा सकता है तो ये नए नवेले विधायक जी तो महज एक सियासी पौध हैं जिन्हें उखाड़ फेंकने में दो मिनट का वक्त भी नहीं लगेगा।

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