विचार

मेरा देश बदल रहा है : वकीलों को इंसाफ चाहिए, पुलिस को सुरक्षा

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नीरज सिसौदिया, नई दिल्ली
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में हिन्दुस्तान की जो बदलती तस्वीर सामने आ रही है वह पिछले सत्तर सालों में देखने को नहीं मिली. राजधानी के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है जब लोगों को इंसाफ दिलाने वाले खुद इंसाफ के लिए आत्महत्या और आत्मदाह जैसी कोशिशें करने को मजबूर हुए हैं. वहीं, हिन्दुस्तान के दिल की सुरक्षा करने वाली खाकी अपनी सुरक्षा सुनिश्चित कराने के लिए सड़कों पर उतरने को मजबूर हो गई है. इतिहास में पहली बार पुलिस वालों के परिजनों को हाईवे जाम करने पर मजबूर होना पड़ा. बदलते भारत की ऐसी तस्वीर की उम्मीद तो निश्चित तौर पर खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी नहीं की होगी. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर इन हालातों का जिम्मेदार कौन है? क्या वाकई वकीलों का गुनाह इतना बड़ा था कि उन पर गोलियां बरसाना जरूरी हो गया था या फिर पुलिसकर्मी वाकई में इतने बेलगाम हो चुके हैं अपने अहम के आगे वह किसी की नहीं सुनते? आखिर गलती किसकी है? चूक कहां हुई? सरकार कहां नाकाम साबित हुई?
अब जरा घटनाक्रम पर नजर डालते हैं. वकीलों का कहना है कि एक वकील अपनी गाड़ी पार्क कर रहा था तभी एक पुलिस वाला आया और गाड़ी हटाने को कहने लगा. इस पर वकील साहब ने दस मिनट में आने का हवाला देते हुए गाड़ी वहीं खड़ी करने देने की रिक्वेस्ट की. वकील की रिक्वेस्ट का पुलिस वाले पर कोई असर नहीं पड़ा और उसने अपनी वर्दी का रौब दिखाना शुरू कर दिया. उस पुलिसकर्मी के लिए वकील का अपराध इतना बड़ा हो गया कि वह कानून का सख्ती से पालन कराने पर अड़ गया. बस यहीं से विवाद बढ़ने लगा और दोनों में पहले तू-तू मैं-मैं हुई और मामला राष्ट्रीय पटल पर जा पहुंचा. ऐसा नहीं है कि किसी पुलिसकर्मी ने पहली बार ऐसा रवैया अपनाया हो. दो नवंबर को उस वकील के साथ जो भी हुआ वो तो दिल्ली की पब्लिक रोज झेलती है. पुलिसकर्मियों द्वारा जिस तरह से बाइक सवारों को परेशान किया जाता है और उसके बाद कानून का हवाला देकर जलील किया जाता है वह दिल्ली की जनता से बेहतर कौन जान सकता है. खासकर उस वक्त पुलिस कर्मी कानून के इतने बड़े रखवाले बन जाते हैं जब कोई पुरुष किसी महिला के साथ होता है. तीस हजारी कोर्ट का मामला इसलिए इतना बढ़ गया चूंकि वहां पीड़ित खुद एक वकील था. पुलिसकर्मी अगर वकीलों पर गोली नहीं चलाते तो शायद हालात इतने बदतर नहीं होते. कुछ लोग हालात के लिए वकीलों को जिम्मेदार मानते हैं. ऐसे में सोचनीय तथ्य यह है कि आम आदमी हो या बड़ा नेता या फिर कोई मंत्री, कोई भी पुलिस से उलझना नहीं चाहता. ऐसे में पुलिसकर्मियों को वह बिना किसी बात के सिर्फ अपना रौब दिखाने के लिए पीटने की हिम्मत कोई जुटा पाएगा यह सोचना भी बेमानी है. जब तक हालात बद से बदतर न हो जाएं तब तक कोई खाकी पर हाथ डालने की कल्पना तक नहीं कर सकता. फिर चाहे वह वकील हो या कोई और. सब पुलिसकर्मी से बदला लेने के लिए कानून के रास्ते पर ही चलते हैं. अब सवाल यह उठता है कि आखिर चूक कहां पर हुई? असल में देखा जाए तो यह चूक पुलिस के आला अधिकारियों और बार एसोसिएशन के पदाधिकारियों के स्तर पर नजर आती है. साथ ही सबसे बड़ी चूक राजनीतिक स्तर पर हुई है.
अगर इस मामले को पुलिस उसी तरह मारपीट के मामले की तरह लेती जैसे कि आम तौर पर ऐसे मामलों को लिया जाता है तो यह विवाद पहले ही दिन खत्म हो चुका होता. लेकिन पुलिस ने इसे बड़ा विवाद बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और होम मिनिस्टर भी सोते रहे.
कैसे बढ़ा पुलिस का हौसला
दरअसल, पुलिस का पब्लिक से डील करने के तरीके में पिछले कुछ वर्षों में काफी बदलाव आया है. खासकर उस वक्त से जब दिल्ली में केजरीवाल की सरकार बनी और केंद्र में मोदी सरकार. दिल्ली पुलिस के कुछ अधिकारियों और कर्मचारियों को नेताओं का संरक्षण प्राप्त है. दिल्ली के कई इलाकों में तो नेताओं के संरक्षण में खुलेआम अवैध कारोबार चलाए जा रहे हैं. कहीं भाजपा, कहीं कांग्रेस तो कहीं आम आदमी पार्टी के कुछ नेता तो सीधे तौर पर नशे के काले कारोबार से जुड़े हैं. कुछ पुलिसकर्मी इनके कारोबार को संरक्षण देते हैं तो बदले में नेता उन्हें संरक्षण देते हैं. इसी राजनीतिक संरक्षण के चलते ये पुलिसकर्मी बेलगाम हो चुके हैं और आम पब्लिक तो दूर ये अपने अधिकारियों को भी कुछ नहीं समझते. ऐसे पुलिसकर्मियों से मोरल पुलिसिंग की कितनी उम्मीद की जा सकती यह सोचने वाली बात है. दूसरी तरफ दिल्ली पुलिस भाजपा की हो गई और दिल्ली की जनता केजरीवाल की. सत्ता के इस बंटवारे ने दिल्ली का बेड़ा गर्क कर दिया है.

क्या है समाधान

लोगों के मन में सबसे ज्यादा गुस्सा इसी बात को लेकर है कि गंभीर अपराधों के प्रति पुलिस आंखें मूंदकर बैठ जाती है और छोटे-मोटे मसलों पर पुलिसकर्मी ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे इससे बड़ा अपराध कोई हो ही न. अपराध और अपराधियों को देखने का पुलिस का भेदभावपूर्ण रवैया ही पुलिस के प्रति असम्मान और आक्रोश की सबसे बड़ी वजह है. इसलिए सरकार को ऐसे कानून लाने की जरूरत है जो इस तरह की परिस्थितियों से निपटने में सक्षम हो. साथ ही पुलिस की गिरती साख को बचाने की दिशा में भी आवश्यक पहल करने की जरूरत है. वरना देश इसी तरह बदलता रहेगा. और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्लोगन मेरा देश बदल रहा है, ये आगे बढ़ रहा है सिर्फ एक जुमला ही बनकर रह जाएगा.

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