नासमझी है उन लोगों की, जो औकात आज हैं भूले
पता नहीं कब मौत यहाँ पर,चुपके से आ किसको छू ले।
जिनके पेट भरे हैं वे क्यों, निर्बल के धन को भी हड़पें
भूख- प्यास से जो अब तड़पें, उनसे होती रहतीं झड़पें
सुख- सुविधा को भोग रहे जो, बेरहमी से करें कमाई
दीन- दु:खी या लाचारों को, नहीं मानते अपना भाई
अपने को वे चतुर समझते, अब घमंड से भी वे फूले
पता नहीं कब मौत यहाँ पर,चुपके से आ किसको छू ले।
जीवन इतना बदल गया क्यों,लोग दूसरों से क्यों जलते
आस्तीन के साँप यहाँ पर, हमको मिले फूलते- फलते
नहीं किसी के सगे हुए वे, केवल अपनी दाल गलाई
डस लेते भोले- भालों को, इसमें उनको लगे भलाई
समझाए जब उनको कोई,होते हैं वे आग-बबूले
पता नहीं कब मौत यहाँ पर,चुपके से आ किसको छू ले।
खुद को बड़ा आदमी मानें, ऐसे लोग हुए अभिमानी
यम के सम्मुख सभी बराबर, किसकी चलती आनाकानी
चित्रगुप्त जी ने ही केवल, वहाँ बैठकर कलम चलाई
जिसने पुण्य किया है वह ही, खाएगा भरपूर मलाई
हाय अनैतिक हुए यहाँ जो, कूटनीति का झूला झूले
पता नहीं कब मौत यहाँ पर,चुपके से आ किसको छू ले।
चाहे कोई हो अधिकारी, बना यहाँ कोई व्यापारी
होता सब का लेखा-जोखा, कोई भी नर हो या नारी
कितनी यहाँ धर्म की बातें, अब तक उनको गयीं सिखाई
मतलब में फिर भी वे अंधे, देता उनको नहीं दिखाई
जिसके मन में मैल भरा वह, अपनी गलती नहीं कबूले
पता नहीं कब मौत यहाँ पर,चुपके से आ किसको छू ले।
रचनाकार-उपमेंद्र सक्सेना एड.
‘कुमुद- निवास’, बरेली (उ० प्र०)
मो. – 983794 4187