हाय यहाँ पर हमने देखे, गेहूँ के संग घुन पिसते
और दलालों के कारण, भोले- भाले चप्पल घिसते।
नींद चैन की आए कैसे, सपनों की खटिया टूटी
बनता कोई काम न उनका, लगता है किस्मत रूठी
बात नहीं करते अधिकारी, जो हैं यहाँ ऑन ड्यूटी
और कर्मचारी भी क्यों अब, कसमें खाते हैं झूठी
काली भी उजली कर डाली धन- दौलत जितनी लूटी
तिकड़म के कारण न कभी भी पापों की गगरी फूटी
आस्तीन के साँपों को जब, देखा अपनों को डसते
लगी आस्थाओं की बोली, नैतिक मूल्य बिके सस्ते।
आज अनैतिक हुए यहाँ जो, वे ऐसा व्यवहार करें
जो कुछ करना नहीं चाहिए उसको करके नहीं डरें
उन पर कोई असर न होता चाहें कितने लोग मरें
चोर- चोर मौसेरे भाई मिलकर अपनी जेब भरें
अपना स्वार्थ सिद्ध करके भी नहीं यहाँ से कभी टरें
अधिकारों का लाभ उठाकर फिर सरकारी माल चरें
गांधी जी का चित्र टाँगकर ये सुविधा भोगी हँसते
आज किसलिए राष्ट्रपिता पर लोग यहाँ ताने कसते।
रचनाकार- उपमेंद्र सक्सेना एड.
‘कुमुद- निवास’
बरेली (उत्तर प्रदेश)
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