अपनेपन का नाटक करने वालों का, कच्चा चिट्ठा कौन भला अब खोलेगा
मानवता की सेवा में चतुराई से, काला धन भी उजला होकर डोलेगा।
जनहित की बातों का तो अब क्या कहना, झूठे वादों में फँसकर पीड़ा सहना
बनीं योजनाएँ जाने किसके हित में, निर्बल को तो बस आँसू पीकर रहना
समरसता में भेद-भाव जब घुस जाए, तिकड़म के विपरीत कौन फिर बोलेगा
मानवता की सेवा में चतुराई से, काला धन भी उजला होकर डोलेगा।
कथनी- करनी में अंतर जब से आया, दुष्टों ने बस सबके मन को बहलाया
कूटनीति की चाल करे खिलवाड़ यहाँ, जिसने लाचारों को इतना दहलाया
होगा फिर उपहास यहाँ पर कितनों का, पैसे वाला जब निर्धन को तोलेगा
मानवता की सेवा में चतुराई से, काला धन भी उजला होकर डोलेगा।
लोग गधे को बाप बनाते मतलब से, उसके बाद घास कोई क्यों डालेगा
जिसकी लाठी भैंस उसी की होती है, यही भाव वह अपने मन में पालेगा
जैसी हवा, पीठ वैसी करने वाला, बहती गंगा में पापों को धो लेगा
मानवता की सेवा में चतुराई से, काला धन भी उजला होकर डोलेगा।
आस्तीन के साँप जहाँ पर भी पलते, सच्चे मानव से वे अब कितना जलते
भाई-चारे की बातों में जहर घुला, सद्भावों का पहन मुखौटा वे छलते
चालाकी से जो मिठास को बाँट रहा, सीधा-सादा साथ उसी के हो लेगा
मानवता की सेवा में चतुराई से, काला धन भी उजला होकर डोलेगा।
रचनाकार -उपमेंद्र सक्सेना एड.
‘कुमुद-निवास’
बरेली (उ.प्र.)
मो.- 98379 44187