झारखण्ड देश

सरहुल पूरे देश में…लेकिन झारखंड के 5 समुदाय इसे अलग-अलग तरह से मनाते हैं

Share now

रामचंद्र कुमार अंजाना, बोकारो थर्मल
बोकारो थर्मल स्थित सरना स्थल में मंगलवार को धुमधाम से सरहुल पुजा मनाया गया। पूजा को लेकर विधुत नगरी में एक शोभा यात्रा निकाली गयी। इससे पहले जोहारथान में पुजारी रामप्रसाद सोरेन, करमचंद किस्कू, शिवनाथ किस्कू व पुसन मुर्मू ने विधिवत पुजा-अर्चना किया गया। समारोह में बतौर अतिथि डीवीसी के परियोजना प्रधान कमलेश कुमार, हीरालाल मांझी, व थाना प्रभारी परमेश्वर लेंयागी ने शिरकत किया। समारोह को संबोधित करते वक्ताओं ने कहा कि सेनगे सुसुन, काजिगे दुरंग…यानी जहां चलना नृत्य और बोलना गीत-संगीत है। यही झारखंड का जीवन है। हाड़तोड़ मेहनत के बाद…सेनगे सुसुन, काजिगे दुरंग…यानी जहां चलना नृत्य और बोलना गीत-संगीत है। यही झारखंड का जीवन है। हाड़तोड़ मेहनत के बाद रात में पूरा गांव अखड़ा में साथ-साथ नाचता-गाता है। ऐसे में बसंत में सरहुल को खुशियां का पैगाम माना जाता है। क्योंकि, इस समय प्रकृति यौवन पर होती है। फसल से घर और फल-फूल से जंगल भरा रहता है। मानते हैं प्रकृति किसी को भूखा नहीं रहने देगी। सरहुल दो शब्दों से बना है। सर और हूल। सर मतलब सरई या सखुआ फूल। हूल यानी क्रांति। इस तरह सखुआ फूलों की क्रांति को सरहुल कहा गया। मुंडारी, संथाली और हो-भाषा में सरहुल को ‘बा’ या ‘बाहा पोरोब’, खड़िया में ‘जांकोर’, कुड़ुख में ‘खद्दी’ या ‘खेखेल बेंजा’, नागपुरी, पंचपरगनिया, खोरठा और कुरमाली भाषा में इस पर्व को ‘सरहुल’ कहा जाता है। मुंडारी बहा पोरोब में पूर्वजों का होता है सम्मान मुंडा समाज में बहा पोरोब का विशेष महत्व है। मुंडा प्रकृति के पुजारी हैं। सखुआ साल या सरजोम वृक्ष के नीचे मुंडारी खूंटकटी भूमि पर मंुडा समाज का पूजा स्थल सरना होता है। सभी धार्मिक नेग विधि इसी सरना स्थल पर पाहन द्वारा संपन्न किया जाता है। जब सखुआ की डालियों पर सखुआ फूल भर जाते हैं, तब गांव के लोग एक निर्धारित तिथि पर बहा पोरोब मनाते हैं। बहा पोरोब के पूर्व से पाहन (पहंड़) उपवास रखता है। यह पर्व विशेष तौर पर पूर्वजों के सम्मान में मनाते हैं। धार्मिक विधि के अनुसार सबसे पहले सिंगबोगा परम परमेश्वर को फिर पूर्वजों और ग्राम देवता की पूजा की जाती है। पूजा की समाप्ति पर पाहन को नाचते-गाते उसके घर तक लाया जाता है। सभी सरहुल गीत गाते हुए नाचते-गाते हैं। एक्सपर्ट रू वाल्टर भेंगरा, साहित्यकार, शिक्षाविद्, खूंटी, बीरेंद्र सोय, मुंडारी शोधार्थी हो समुदाय तीन दिनों तक बा पोरोब मनता है ‘बा’ का शाब्दिक अर्थ है फूल अर्थात फूलों के त्योहार को ही ‘बा’ पोरोब कहते हैं। बा पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता है। सर्वप्रथम ‘बारू गुरि’, दूसरे दिन ‘मरंग पोरोब’ और अंत में ‘बा बसि’। बा गुरि के दिन नए घड़े में भोजन तैयार होता है। घर का मुखिया रसोई घर में मृत आत्माओं, पूर्वजों एवं ग्राम देवता को तैयार भोजन, पानी, हड़िया अर्पित कर घर-गांव की सुख-समृद्धि की कामना सिंगबोंगा (ईश्वर) से करते हैं। दूसरे दिन जंगल जाकर साल की डालियां फूल सहित काटकर लाते हैं और पूजा के बाद आंगन-चैखट आदि में प्रतीक स्वरूप खोंसते हैं। तीसरे दिन बा बसि में सभी पूजन सामग्रियों को विसर्जित किया जाता है। रात में पुनरू नाच-गान आरंभ होता है। धरती-सूर्य का विवाह खेखेल बेंजा सरहुल के दिन सृष्टि के दो महान स्वरूप शक्तिमान सूर्य एवं कन्या रूपी धरती का विवाह होता है। जिसकी कुड़ुख या उरांव में खेखेल बेंजा कहते हैं।

इसका प्रतिनिधित्व क्रमशरू उरांव पुरोहित पहान (नयगस) एवं उसकी धर्मपत्नी (नगयिनी) करते हैं। इनका स्वांग प्रतिवर्ष रचा जाता है। उरांव संस्कृति में सरहुल पूजा के पहले तक धरती कुंवारी कन्या की भांति देखी जाती है। धरती से उत्पन्न नए फल-फूलों का सेवन वर्जित है। इस नियम को कठोरता से पालन किया जाता है। पहान घड़े का पानी देखकर बारिश की भविष्यवाणी करते हैं। पहान सरना स्थल पर पूजा संपन्न करता है और तीन मुर्गों की बलि दी जाती है और खिचड़ी बनाकर प्रसाद के रूप में खाते हैं। फिर पहान प्रत्येक घर के बुजुर्ग या गृहिणी को चावल एवं सरना फूल देते हैं, ताकि किसी प्रकार का संकट घर में न आए।

सरहुल के एक दिन पहले केकड़ा खोदने का रिवाज है। केकड़ा को पूर्वजों के रूप में बाहर लाकर सूर्य और धरती के विवाह का साक्षी बनाया जाता है। सरहुल के बाद ही खरीफ फसल की बोआई के लिए खाद और बीज डाला जाता है। संथाल विशेष राग-ताल में होता है बाहा नृत्य बाहा संथालों के प्रकृति से प्रेम को दर्शाता है। प्राचीन काल से साल एवं महुआ को देव स्वरूप मानकर पूजने की प्रथा रही है। बाहा फागुन का चांद निकलने के पांचवें दिन शुरू होता है और पूरे महीने चलता है। जाहेरथान (पूजन स्थल)में इष्ट देव की पूजा पारंपरिक विधि विधान के साथ की जाती है। मुर्गा बलि के बाद खिचड़ी बनाई जाती है जिसे प्रसाद के तौर पर लोग ग्रहण करते हैं। दूसरे दिन लोग जाहेरथान में उपस्थित होते हैं। नायकी सखुआ फूल एवं पारंपरिक सामग्री संग पूजा करते हैं। तीसरे दिन फागु या बाहा सेंदरा मनाते हैं। घर के पुरुष सेंदरा से लौटते हैं तो धनुष और सारे अस्त्र-शस्त्र को खोला जाता है। बाहा नृत्य होता है, जिसमें महिलाएं अकेली नृत्य करती हैं, पुरुष वाद्ययंत्र बजाते हैं। विशेष राग में गीत और नृत्य होता है। फलों-बीजों का क्रमवार विकास। पर्व फागुन पूर्णिमा के एक दिन पहले शुरू हो जाता है। इसी दिन उपवास रखा डाता है। पुरुष दिन में शिकार करने चले जाते हैं। उसी शाम को एक भार पानी (दो नए घड़ों में) ले जाकर रख दिया जाता है। दूसरे दिन पाहन पूजा के बाद बलि देता है। दोनों घड़े का पानी देखकर पहान पूर्ण वर्षा होने, न होने की भविष्यवाणी करते हैं। लोगों को सखुआ फूल देकर आशीर्वाद देते हैं। कार्यक्रम के आरंभ से अंत तक ढोल, नगाड़े एवं शहनाई भी बजते हैं। इसी दिन शाम में पाहन सेमल वृक्ष में धाजा-फागुन काटते हैं। फिर इस डाली को लोग अपने घरों में खोंस देते हैं। तीसरे दिन फूलखोंसी का कार्य प्रत्येक गांव में किया जाता है। इस अवसर पर पूर्व जिप अध्यक्ष शोभा मुर्मू, सी, खलखो, मणीराम मुर्म, धुर्वा मांझी, जहरू उरांव, प्रमोद कुमार मुर्मू, बृजलाल हांसदा, झरीलाल हांसदा सहित सैकड़ों लोग उपस्थित थे।

Facebook Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *