विचार

मजदूर दिवस पर विशेष : सिसकती जिंदगी…

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नैनों में अविरल धारा है ,
मुख पर करुणा सी सिसक रही।
है धंसी हुई आंखें जिनमें,
गाथा अतीत की थिरक रही।
पलकों में कुछ भारीपन सा,
दारिद्रय दिखाते मलिन वसन ।
माथे पर झुर्री पड़ी हुई,
है यौवन में भी जर्जर तन।
मलिन वसन के अवगु्ठनमें,
छिपा हुआ शशि सा मुखड़ा।
दिल में है मचा बवंडर सा,
किस को रोये अपना दुखड़ा।
इन नयन कोटरो के अंदर,
हे छिपी हुई निःसीम व्यथा।
किसने सुनपाई स्नेह सिक्त,
कानों से उसकी करुण कथा।
अंतिम घड़ियां गिन रही आज,
लेती है मुख से दीर्घ श्वास।
फिर भी निज प्रिय शिशु के निमित्त,
रखती जीवन की तनिक आस।
बच्चा रोया माँ-माँ कहकर,
रह गयी बिचारी अकुलाकर।
वह माँग रहा माँ का मधुरस,
करवट उसने ली सकुचा कर।
दिवसो से खाया अन्न नहीं,
फिर कैसे दे पाये मधुरस।
है शुष्क अथर रुंध गया गला,
है तड़प रही उसकी नस-नस।
रोता जाता माँ रोटी दे ,
माँ दूध पिला है भूख लगी।
रो-रो के आँखें लाल हुईं ,
लेकिन उसकी माँ नहीं जगी।
उड़ गया प्राण का पंछी तब,
रह गया धरा पिंजर शरीर।
लेकिन वह शिशु तो शिशू ही था,
थी समझ नहीं बस था अधीर।
लेखिका-प्रमोद पारवाला(बरेली उत्तर-प्रदेश)

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