हे।जलधि तुम मौन क्यों हो कुछ तो बोलो
ज्वार बनकर विष धरणी का खींच लो।
कालकूट भी तो तुम्ही ने था उगला,
नीलकण्ठ ने ही तो जिसको था निगला।
क्यों न तुम ही इस विषाणु का अन्त करो,
विष को ही महाविष से अब हन्त करो।
हर लो जगत की तुम सभी आपदाएं,
रात दिन जलती यहां पर अब चिताएं।
है हलाहल का अँश अभी तुममें छिपा,
उससे भयंकर तो नहीं इसमे बचा।
एक हिलोर तो उन्हें ऐसी लगा दो,
शेष पर सोये हुए नारायण जगा दो।
सत्वर उठाले अब सुदर्शन चक्र वो,
और काट दे शत्रु के क्रूर कुचक्र को।
अब शेष भी अपनी सहस्त्र फुँकार से,
खींच इसे डुबो दे नीर आगार मे।
हे जलधि तुम अपरमित जलराशि वाले,
कौन है जगत में तुमसे पार पाले?
हे रत्नाकर तुम असीम शक्ति वाले,
तुम्हारी गर्जना शत्रु का दिल हिलादे।
तुमने अभी कितने तूफान उठाये,
क्यों नही चक्रवात से विष भी बुझाये।
आज अवनी की पीर तो तुम ही हरो ,
शत्रु के नाश का अब प्रण धारण करो।
लेखिका-प्रमोद पारवाला, बरेली, उत्तर प्रदेश